Monday, August 8, 2011

जुलियस को न्याय मिले, लापरवाह अधिकारियों को सजा


डा. विष्णु राजगढि़या
रांची: जुलियस एक्का ने भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को अपने साथ हुए अन्याय की जानकारी दी। उसने झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री के पास भी गुहार लगायी। केंद्रीय सूचना आयोग अपने फैसले में समुचित कदम उठाने का आग्रह कर चुका है। लेकिन कोल इंडिया पर कोई असर नहीं।

वर्ष 2005 में यूपीए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में एससी/एसटी कोटे के बैकलाॅग में नियुक्ति का निर्देश दिया था। कोल इंडिया की धनबाद स्थित कंपनी बीसीसीएल ने नियुक्ति के विज्ञापन निकाले। जनवरी 2006 में रांची जिले के जुलियस एक्का को डंफर आपरेटर के बतौर नियुक्ति की परीक्षा में सफलता मिली। लेकिन उसे नौकरी नहीं मिल पायी। कारण महज इतना कि बीसीसीएल उसके जाति प्रमाणपत्र का सत्यापन नहीं कर पाया। बीसीसीएल ने अपनी अक्षमता का शिकार एक बेरोजगार आदिवासी को बना दिया। रांची जिला प्रशासन ने उसके जाति प्रमाणपत्र का दो साल तक सत्यापन नहीं किया।
इस संबंध में झारखंड आरटीआइ फोरम के सचिव डाॅ विष्णु राजगढि़या ने आरटीआइ आवेदन डाला। पता चला कि बीसीसीएल ने नियम विरूद्ध कदम उठाये हैं। बीसीसीएल द्वारा उपलब्ध कराये गये दस्तावेजों से ही यह बात उजागर होती है। नियम यह है कि एससी/एसटी कोटे के तहत चयनित उम्मीदवारों के नियुक्ति-पत्र में लिखा जायेगा - ‘‘यह अंतरिम नियुक्ति है तथा आपका जाति प्रमाण नकली पाये जाने पर इसे रद्द कर दिया जायेगा।‘‘

लेकिन बीसीसीएल ने जुलियस एक्का को अंतरिम नियुक्ति नहीं दी। जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन की मामूली औपचारिकता के नाम पर बीसीसीएल ने चयन के डेढ़ साल बाद तक का कीमती समय नष्ट किया। इसके बाद जुलियस के चयन को निरस्त कर दिया।

यह मामला सिर्फ जुलियस एक्का तक सीमित नहीं। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में ऐसे सैकड़ों एससी/एसटी बेरोजगारों के साथ धोखा किया गया है। जुलियस ने अपने मामले में सूचना कानून के तहत सूचना मांगी थी। पता चला कि कुल 187 उम्मीदवारों ने सफलता हासिल हासिल की थी। लेकिन मात्र 76 उम्मीदवारों के जाति प्रमाणपत्र का सत्यापन हुआ।
शेष 111 उम्मीदवारों का क्या हुआ, यह पता लगाने के लिए डा. विष्णु राजगढि़या ने बीसीसीएल में सूचना का आवेदन डाला। डा. राजगढि़या ने इस संबंध में नियमों की भी जानकारी मांगी। मिली सूचना से स्पष्ट है कि बीसीसीएल ने भारत सरकार के नियमों को ताक पर रखकर अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवारों के साथ सरासर अन्याय किया है। डाॅ राजगढि़या ने कोल इंडिया की अन्य कंपनियों से भी ऐसी नियुक्तियों की सूचना मांगी। सीसीएल से मिली सूचना के अनुसार 11 सफल उम्मीदवारों की नियुक्ति इस मामूली कारण से रद्द कर दी गयी। डा. राजगढि़या ने यह भी जानना चाहा था कि ऐसा किस नियम के तहत किया गया। इस पर सीसीएल ने स्वीकार किया है कि ऐसा कोई नियम नहीं है।
जुलियस को आरटीआइ से काफी उम्मीद है। उसे अब तक नौकरी नहीं मिली है। लेकिन आरटीआइ से मिले दस्तावेजों से उसे अपने साथ हुए अन्याय को उजागर करने में जबरदस्त सफलता मिली है। आरटीआइ से मिले दस्तावेज उसे न्यायालय में भी मदद कर सकते हैं।

जुलियस एक्का ने बीसीसीएल के सीएमडी को भेजे गये पत्र में लिखा है-
आखिर आपके पास ऐसा कोई तो रास्ता होगा जिससे मुझे यह भरोसा दिला सकें कि मैं एक स्वाधीन एवं लोकतांत्रिक देश का ऐसा नागरिक हूं जिसे संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकार प्राप्त हैं!
लेकिन बीसीसीएल खामोश है। देश और राज्य की अन्य संवैधानिक हस्तियों के पास भी जुलियस ने ऐसे ही पत्र भेजे हैं। सब खामोश है। वैसे भी फिलहेाल झारखंड में माओवाद की फसल लहलहा रही है।
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जुलियस ने बीसीसीएल को भेजा पत्र, जिसका कोई जवाब नहीं मिला

सेवा में,
अध्यक्ष सह प्रबंध निदेशक
बीसीसीएल, कोयला भवन, सरायढेला, धनबाद
विषय- नियुक्ति हेतु मेरे चयन के बाद जाति प्रमाणपत्र का सत्यापन कराने में बीसीसीएल द्वारा नियम के प्रतिकूल मुझे नौकरी से वंचित किये जाने पर पुनर्विचार करके नियुक्ति हेतु आवेदन
संदर्भ - डा. विष्णु राजगढि़या के सूचना आवेदन दिनांक 08.04.2010 के आलोक में श्री ए. एन. पाठक, जनसूचना अधिकारी, बीसीसीएल मुख्यालय द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज पत्रांक 10-11/211 दिनांक 21.06.2010
मान्यवर
-रांची निवासी डा विष्णु राजगढि़या के सूचना आवेदन दिनांक 08.04.2010 के आलोक में बीसीसीएल मुख्यालय जनसूचना अधिकारी श्री ए. एन. पाठक द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज पत्रांक 10-11/211 दिनांक 21.06.2010 के बिंदु आठ के अनुसार मेरे जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन के अभाव में मेरा चयन निरस्त कर दिया गया। लेकिन श्री पाठक द्वारा प्रेषित दस्तावेजों खासकर बिंदु दस से इस बात की पुष्टि होती है कि बीसीसीएल का यह कदम नियमानुकूल नहीं है।

-उक्त सूचना आवेदन में डा. राजगढि़या ने दसवें बिंदु में सूचना मांगी थी-
Copies of the rules, orders, instructions, etc., which formed the basis for verification of Caste and other Certificates filed by the candidates.
-इसके जवाब में बीसीसीएल के जनसूचना अधिकारी ने लिखा है-
Verification of Caste Status of SC/ST and OBC is being done as per Office Memorandum dt. 09-09-2005, issued by Govt. of India. A photocopy is annexed for ready reference into the matter.

-भारत सरकार के उक्त आफिस मेमोरेंडम दिनांक 09.09.2005 के अनुसार एससी, एसटी अभ्यर्थी की नियुक्ति संबंधी पत्र में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि-
“The appointment is provisional and is subject to the caste/tribe certificate being verified through the proper channels and if the verification reveals that the claim to belong to SC/ST is false, the service will be terminated.”

-स्पष्ट है कि मेरे चयन के उपरांत मुझे प्रोविजनल नियुक्ति दी जानी चाहिए थी और उस संबंध में निर्गत पत्र में उक्त पंक्ति का उल्लेख किया जाना चाहिए था। अगर प्रोविजनल नियुक्ति के उपरांत मेरा जाति प्रमाणपत्र नकली पाया गया होता तो मुझे नौकरी से निकाल दिया गया होता। लेकिन मेरे मामले में ऐसा नहीं किया गया। इस नियम का अनुपालन करने के बजाय मुझे पहले प्रोविजनल नियुक्ति से वंचित रखा गया और फिर मेरे चयन को रद्द कर दिया गया।

मान्यवर, मैं भारतीय संविधान में भरोसा रखने वाला एक बेरोजगार युवक हूं। मैं आपके समक्ष अपना पक्ष इस रूप में रखना चाहता हूं-
-वर्ष 2005 में मुझे कोल इंडिया द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के रिक्त पदों पर नियुक्ति सूचना मिली। मैंने भारत कोकिंग कोल लिमिटेड- बीसीसीएल, धनबाद में डंफर आपरेटर हेतु आवेदन भरा। बीसीसीएल ने 24.01.2006 को मेरा इंटरव्यू लिया।
-इस आधार पर बीसीसीएल ने मेरा चयन कर लिया। लेकिन मुझे कोई सूचना नहीं भेजी। इसके बजाय वेबसाइट पर परिणाम प्रकाशित कर दिया।
-इसके बाद बीसीसीएल ने मुझे 23.07.2007 को पत्र भेजा। इसमें लिखा-
-आपके जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन हेतु रांची जिला उपायुक्त को कई पत्र भेजे गये। अब तक कोई पत्र उपायुक्त से प्राप्त नहीं हुआ। इससे प्रतीत होता है कि आपका जाति प्रमाणपत्र सही नहीं है। ऐसी स्थिति में कंपनी के वेबसाइट में चयन सूची से आपका नाम तत्काल हटाया जाता है। इस संबंध में कोई पत्राचार स्वीकार नहीं होगा।

-यह पत्र मिलने के बाद मैंने 28.07.2008 एवं 25.09.2008 को उपायुक्त रांची को पत्र लिखकर जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन का अनुरोध किया।
-रांची समाहरणालय कल्याण शाखा ने दिनांक 30.01.2009 के पत्र द्वारा मुझे सूचित किया कि आपके जाति प्रमाणपत्र का सत्यापन करके पत्रांक 3563-ाा दिनांक 30.08.2007 को बीसीसीएल को भेज दिया गया था।
-लेकिन बीसीसीएल ने मेरी नियुक्ति की दिशा में समुचित कदम नहीं उठाये।

-निराश होकर मैंने सूचना के अधिकार का सहारा लिया। बीसीसीएल ने मुझे संसद द्वारा पारित सूचना के अधिकार से भी वंचित करने का भरपूर प्रयास किया। मैंने केंद्रीय सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया। आयोग ने अपने आदेश सीआइसी/80/ए/ 2009/ 000521 तथा 000550 31 जुलाई, 2009 के बिंदु संख्या 6, 7, 8, 9, 14, 15, 16, 18 तथा 19 के तहत विभिन्न सूचनाएं प्रदान करने एवं दस्तावेजों के निरीक्षण का अवसर देने का निर्देश दिया था।

-इसके बावजूद बीसीसीएल ने सूचनाएं और निरीक्षण का समुचित अवसर देने के बजाय चालाकी भरे कदमों द्वारा मुझे लगातार परेशान किया।

-केंद्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेश में यह भी लिखा...... “I would urge the higher management of BCCL to re-examine this matter for a suitable corrective measure, which may provide justice to this poor and helpless young person.”

-लेकिन बीसीसीएल ने मानो इस पंक्ति का अर्थ ही न समझा हो।

मान्यवर, उक्त आलोक में निवेदन करना चाहता हूं कि
1. भारत सरकार के आफिस मेमोरेंडम दिनांक 09.09.2005 के अनुसार मुझे प्रोविजनल नियुक्ति दी जानी चाहिए थी। लेकिन मुझे इस प्रावधान से वंचित रखा गया।
2.मुझे मेरे चयन की कोई सूचना नहीं दी गयी। इसे सिर्फ वेबसाइट पर डाला गया। आखिर कोई कैसे जानेगा कि उसका चयन हो गया। उसमें भी जब एससी-एसटी विशेष भर्ती अभियान हो तो सिर्फ वेबसाइट पर सूचना देना घिनौनी साजिश है।
3.उपायुक्त, रांची को जाति प्रमाणपत्र के लिए बार-बार पत्र भेजे गये लेकिन इसकी कोई सूचना एक बार भी मुझे नहीं दी गयी। मुझे इसकी सूचना दी गयी होती तो मैं इस बाबत स्वयं भी प्रयास कर सकता था।
4.मुझे एकमात्र पत्र ऐसा भेजा गया जिसमें लिखा गया कि आपका चयन रद्द किया जाता है। यह तरीका साजिशपूर्ण है। ऐसा करने के बजाय मुझे अपने जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन के लिए कुछ समय का अवसर दिया जा सकता था।
5.मैंने अपना जाति प्रमाणपत्र अपने मूल आवेदन के साथ लगा दिया था। उसके सत्यापन का दायित्व बीसीसीएल का है, मेरा नहीं। जिस काम में बीसीसीएल स्वयं असफल हुआ हो, उसकी सजा मुझे क्यों मिले?

अतएव मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि भूतलक्षी प्रभाव के साथ चयनित पद पर अप्रैल 2006 से मेरी नियुक्ति का आदेश देकर न्याय दिलाने की कृपा करें।
आखिर आपके पास ऐसा कोई तो रास्ता होगा जिससे मुझे यह भरोसा दिला सकें कि मैं एक स्वाधीन एवं लोकतांत्रिक देश का ऐसा नागरिक हूं जिसे संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकार प्राप्त हैं!

जुलियस एक्का
ग्राम - सरगांव, पोस्ट- कैम्बो, थाना- मांडर, जिला- रांची 835214, झारखंड, 09661886940
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जुलियस ने तत्कालीन मुख्यमंत्री को भी लिखा पत्र, जिसका कोई जवाब नहीं मिला

सेवा में,
मुख्यमंत्री, झारखंड
विषय- नियुक्ति हेतु मेरे चयन के बाद जाति प्रमाणपत्र का सत्यापन कराने में बीसीसीएल ने अपनी विफलता के बहाने मुझे नौकरी से वंचित किया
मान्यवर
मैं एक बेरोजगार युवक हूं। वर्ष 2005 में मुझे कोल इंडिया द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के रिक्त पदों पर नियुक्ति सूचना मिली। मैंने भारत कोकिंग कोल लिमिटेड- बीसीसीएल, धनबाद में डंफर आपरेटर हेतु आवेदन भरा। बीसीसीएल ने 24.01.2006 को मेरा इंटरव्यू लिया।
-इस आधार पर बीसीसीएल ने मेरा चयन कर लिया। लेकिन मुझे कोई सूचना नहीं भेजी। इसके बजाय वेबसाइट पर परिणाम प्रकाशित कर दिया।
-इसके बाद बीसीसीएल ने मुझे 23.07.2007 को पत्र भेजा। इसमें लिखा-
-आपके जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन हेतु रांची जिला उपायुक्त को कई पत्र भेजे गये। अब तक कोई पत्र उपायुक्त से प्राप्त नहीं हुआ। इससे प्रतीत होता है कि आपका जाति प्रमाणपत्र सही नहीं है। ऐसी स्थिति में कंपनी के वेबसाइट में चयन सूची से आपका नाम तत्काल हटाया जाता है। इस संबंध में कोई पत्राचार स्वीकार नहीं होगा।
-यह पत्र मिलने के बाद मैंने 28.07.2008 एवं 25.09.2008 को उपायुक्त रांची को पत्र लिखकर जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन का अनुरोध किया।
-रांची समाहरणालय कल्याण शाखा ने दिनांक 30.01.2009 के पत्र द्वारा मुझे सूचित किया कि आपके जाति प्रमाणपत्र का सत्यापन करके पत्रांक 3563-ाा दिनांक 30.08.2007 को बीसीसीएल को भेज दिया गया था।
-लेकिन बीसीसीएल ने मेरी नियुक्ति की दिशा में समुचित कदम नहीं उठाये।
-निराश होकर मैंने सूचना के अधिकार का सहारा लिया। बीसीसीएल ने मुझे संसद द्वारा पारित सूचना के अधिकार से भी वंचित करने का भरपूर प्रयास किया। मैंने केंद्रीय सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया। कंेद्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेश सीआइसी/80/ए/ 2009/000521 तथा 000550 31 जुलाई, 2009 के बिंदु संख्या 6, 7, 8, 9, 14, 15, 16, 18 तथा 19 के तहत विभिन्न सूचनाएं प्रदान करने एवं दस्तावेजों के निरीक्षण का अवसर देने का निर्देश दिया था।
-इसके बावजूद बीसीसीएल ने सूचनाएं और निरीक्षण का समुचित अवसर देने के बजाय चालाकी भरे कदमों द्वारा मुझे लगातार परेशान किया।
-केंद्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेश में यह भी लिखा............. “I would urge the higher management of BCCL to re-examine this matter for a suitable corrective measure, which may provide justice to this poor and helpless young person.”

-लेकिन बीसीसीएल ने मानो इस पंक्ति का अर्थ ही न समझा हो।

मान्यवर, उक्त आलोक में निवेदन करना चाहता हूं कि

6. मुझे चयन की कोई सूचना नहीं दी गयी। इसे सिर्फ वेबसाइट पर डाला गया। आखिर कोई कैसे जानेगा कि उसका चयन हो गया। उसमें भी जब एससी-एसटी के उम्मीदवारों के लिए विशेष भर्ती अभियान हो तो सिर्फ वेबसाइट पर सूचना देना नाकाफी है।

7. उपायुक्त, रांची को जाति प्रमाणपत्र के लिए बार-बार पत्र भेजे गये लेकिन इसकी कोई सूचना एक बार भी मुझे नहीं दी गयी। मुझे इसकी सूचना दी गयी होती तो मैं इस बाबत स्वयं भी प्रयास कर सकता था।

8. मुझे एकमात्र पत्र ऐसा भेजा गया जिसमें लिखा गया कि आपका चयन रद्द किया जाता है। यह तरीका साजिशपूर्ण है। ऐसा करने के बजाय मुझे अपने जाति प्रमाणपत्र के सत्यापन के लिए कुछ समय का अवसर दिया जा सकता था।

9. मैंने अपना जाति प्रमाणपत्र अपने मूल आवेदन के साथ लगा दिया था। उसके सत्यापन का दायित्व बीसीसीएल का है, मेरा नहीं। जिस काम में बीसीसीएल स्वयं असफल हुआ हो, उसकी सजा मुझे क्यों मिले?

अतएव मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि भूतलक्षी प्रभाव के साथ चयनित पद पर अप्रैल 2006 से मेरी नियुक्ति का आदेश देकर न्याय दिलाने की कृपा करें।
आखिर आपके पास ऐसा कोई तो रास्ता होगा जिससे मुझे यह भरोसा दिला सकें कि मैं एक स्वाधीन एवं लोकतांत्रिक देश का ऐसा नागरिक हूं जिसे संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

जुलियस एक्का,
ग्राम - सरगांव, पोस्ट- कैम्बो,
थाना- मांडर, जिला- रांची 835214, झारखंड

Friday, July 15, 2011

पारदर्शी उम्‍मीदों के पांच साल


डा. विष्णु राजगढ़िया
आरटीआई कानून ने अधिकारियों को बनाया जवाबदेह :
गरीबी रेखा से नीचे श्रेणी की पुष्पा कुमारी की कहानी सुनिये। रांची विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र की छात्रा है। उसे पता चला कि स्नातकोत्तर के हर विभाग में बीपीएल के दो विद्यार्थियों को निशुल्क शिक्षा का प्रावधान है। अलग से 500 रुपये मासिक छात्रवृति भी मिलनी है। इसका लाभ न तो पुष्पा को मिल रहा था, न अन्य को। पुष्पा ने अपने भाई मुकेश की मदद से सूचना का आवेदन डाला। नतीजा यह हुआ कि पुष्पा को छात्रवृति की राशि मिलने लगी। स्नातकोत्तर के 23 विभागों से मिली सूचना के मुताबिक किसी भी विभाग ने गरीब छात्र-छात्राओं को उनका जायज हक नहीं दिया। पुष्पा कुमारी उन लाखों भारतीय नागरिकों में एक है, जिन्हें पिछले पांच वर्षों में सूचना कानून ने एक नयी आजादी का स्वाद मिला है। भारतीय राजस्व सेवा की आकर्षक नौकरी छोड़कर आरटीआई आंदोलन में जुटे अरविंद केजरीवाल के अनुसार इस कानून से भारत को एक नया लोकतंत्र मिला है।

मैगसेसे पुरस्कार विजेता अरविंद कहते हैं- सूचना कानून की ताकत आप इस बात से समझ सकते हैं कि चांदनी चौक के एक साधारण कपड़ा व्यवसायी सुभाषचंद्र अग्रवाल ने आज पूरी न्यायपालिका को हिला दिया है। सुभाषचंद्र अग्रवाल की सफलता के भी दिलचस्प किस्से हैं। सुप्रीम कोर्ट में उनका आरटीआई आवेदन दुनिया भर में चर्चा का विषय बना। उन्होंने नवंबर 2007 में सुप्रीम कोर्ट से सूचना मांगी कि नियमानुसार सभी जज अपनी सपंत्ति का विवरण जमा करते हैं अथवा नहीं। सूचना नहीं मिलने पर मामला केंद्रीय सूचना आयोग में पहुंचा। जनवरी 2009 में सूचना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के जनसूचना अधिकारी को निर्देश दिया कि आवेदक को न्यायाधीशों की संपत्ति के विवरण संबंधी सूचना प्रदान करें। जनसूचना अधिकारी ने सूचना देने के बजाय दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी। हाई कोर्ट ने सूचना आयोग के फैसले को बहाल रखा। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ही अदालत में इस पर अपील कर दी। इस पर सुनवाई जारी है। इस एक मामले ने न्यायपालिका में पारदर्शिता को पूरे देश और दुनिया में विचारणीय विषय बना दिया। सुभाषचंद्र अग्रवाल ने केंद्र सरकार से केंद्रीय मंत्रियों की अद्यतन संपत्ति की भी सूचना मांगी थी। यह मामला भी केंद्रीय सूचना आयोग में है। आयोग ने प्रधानमंत्री कार्यालय से इसका खुलासा करने का निर्देश दिया है। अरविंद केजरीवाल के अनुसार दिल्ली जल बोर्ड के निजीकरण का फैसला स्थगित होना भी आरटीआई की ऐतिहासिक उपलब्धि है। विश्व बैंक की मदद से दिल्ली जल बोर्ड के निजीकरण की प्रक्रिया गुपचुप ढंग से 1998 में शुरू कर दी गयी थी। वर्ष 2004 तक नागरिकों को कोई जानकारी नहीं मिली। मीडिया में भी परस्पर विरोधी खबरें आ रही थीं। सरकार निजीकरण की खबरों का खंडन कर रही थी। इस बीच मधु भादुड़ी ने सूचना कानून के सहारे चार हजार से भी ज्यादा पृष्ठों के दस्तावेज निकाल लिये। पता चला कि बहुराष्ट्रीय कंपनी प्राइस वाटरहाउस कूपर्स को इस काम का ठेका दिलाने के लिए विश्वबैंक ने दिल्ली जल बोर्ड व राज्य सरकार को लगातार झुकने पर मजबूर किया।विश्व बैंक ने बार-बार नियमों व शर्त्तों को बदलवा दिया, ताकि उसकी मनचाही कंपनी को ठेका मिल सके। यह भी पता चला कि इस योजना के लागू होने पर पानी की कीमत छह गुना बढ़ जाती। यह सच्चाई सामने आने के बाद दिल्ली सरकार को पीछे हटना पड़ा। यह सच विपक्ष या मीडिया के कारण नहीं बल्कि लोकतंत्र की नयी ताकतों के माध्यम से सामने आया, जिनका सबसे बड़ा हथियार पारदर्शिता का आरटीआई कानून है.

बारह अक्तूबर 2010 को सूचना कानून के पांच साल पूरे हो जायेंगे। इन पांच वर्षों में सूचना का अधिकार ने शासन और प्रशासन के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही का नया माहौल विकसित करते हुए आम नागरिक के हाथ मे जबरदस्त ताकत दी है। अब अधिकारियों को मनमाने फैसले करने से पहले बार-बार सोचना पड़ता है कि आरटीआई में क्या जवाब देगा। इस कानून के कारण भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले भी सामने आये।

इंटरनेशनल सेंटर गोवा की निदेशक नंदिनी सहाय का स्पष्ट मानना है कि पांच वर्षों में सूचना कानून ने अपनी प्रासंगिकता जबरदस्त तरीके से स्थापित की है। अब हर नागरिक को अपना कोई भी संवैधानिक अधिकार हासिल करने का जबरदस्त हथियार मिल गया है और उन्हें अब भ्रष्टाचार के सामने झुकने की जरूरत नहीं। नौकरशाही भी इस बात को समझ रही है और यही कारण है कि अब नागरिकों के सामने अधिकारियों को जवाबदेह होना पड़ रहा है। श्रीमती सहाय के अनुसार कामनवेल्थ गेम्स के मामले में प्रारंभ से सूचना कानून का उपयोग किया गया होता तो इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार संभव नहीं हो पाता। यह दुखद है कि सिविल सोसाइटी ने वक्त रहते इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया और जनता की गाढ़ी कमाई का खुला दुरुपयोग होने दिया। नंदिनी के अनुसार सूचना कानून ने आम आदमी को नयी ताकत दी है। उत्तरप्रदेश के बांदा जिले का एक दिहाड़ी मजदूर सदाशिव अब अपने राशनकार्ड से न सिर्फ खुद राशन हासिल कर रहा है बल्कि अपने साथियों को भी दिला रहा है। यह आरटीआई से ही संभव हुआ है। श्रीमती सहाय के अनुसार आजादी के बाद साठ साल के नौकरशाही ने जिस गोपनीयता का आनंद उठाया है, उसे देखते हुए पांच वर्षों का यह अनुभव काफी सकारात्मक है। इस कानून के कारण नागरिक अब भ्रष्टाचार के खिलाफ बेहिचक लड़ाई शुरू कर रहे हैं।

सूचना कानून के पांच वर्ष के अनुभवों पर मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय कहते हैं- सूचना कानून ने अपना जादू दिखाया है। इसने नौकरशाही और आम जनता के बीच के संबंधों पर जबरदस्त असर डाला है। पहले एक आदमी किसी भी सरकारी बाबू के कमरे में घुसने से डरता था। अपना जायज काम कराने के लिए तीन रास्ते थे। पहला रास्ता रिश्वत का, दूसरा रास्ता पैरवी का और तीसरा रास्ता किसी जनसंगठन या जनांदोलन के दबाव का रास्ता था। लेकिन किसी आम आदमी के लिए इन रास्तों की गुंजाइश बेहद कम होती थी। ऐसे लोगों के लिए अब आरटीआई के रूप में एक चौथा रास्ता खुला है। अगर किसी का कोई जायज काम फंसा है तो वह फौरन आरटीआई डाल सकता है। अधिकारियों में यह भय होता कि इस मामले में उलझने से अच्छा है कि काम करके बाहर निकलो। श्री पांडेय के अनुसार पहले जो नौकरशाह पूरी तरह गैर-जवाबदेह थे, उनके अंदर यह एहसास आया है कि वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं।
संदीप के अनुसार आरटीआई के कारण सरकारी कार्यालयों में दस्तावेज बनाने और रखने की बाध्यता हो गयी है। यूपी के हरदोई जिले के कई अधिकारी बताते हैं कि पहले बहुत से दस्तावेज रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। विकास योजना का पैसा सीधे पंचायत में चला जाता था। उसका न तो हिसाब रखा जाता था और न ही कोई उसका हिसाब लेता था। यहां तक कि मजदूरों को भुगतान का मस्टररोल भी नहीं बनता था। लेकिन हमारे अभियान के कारण सारे दस्तावेज बनने लगे। जनता से सीधे जुड़ी योजनाओं में हम इसका भरपूर उपयोग करके भ्रष्टाचार पर जबरदस्त अंकुश लगा सकते हैं। जैसे जन वितरण प्रणाली या नरेगा के काम। जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने में आरटीआई ने बड़ी भूमिका निभायी है और आम जनता का सशक्तिकरण हुआ है।
संदीप पांडेय के अनुसार हरदोई जिले में वर्ष 2006 तक बीपीएल श्रेणी के लोगों को राशन का एक दाना तक नहीं मिलता था। आरटीआई में हमने राशन वितरण के रजिस्टर, राशन कार्ड धारियों की सूची वगैरह निकाल ली। सतरह दिनों तक हरदोई में धरना भी चला। इसके बाद बीपीएल का राशन बंटना शुरू हुआ और अब हर गांव में पहुंच रहा है, भले ही उसकी मात्रा कम दी जा रही हो, दाम ज्यादा लिया जा रहा हो।

अरुणा राय एवं निखिल डे को राजस्थान से सूचना का अधिकार अभियान शुरू करके पूरे देश तक पहुंचाने का श्रेय जाता है। पांच वर्षों के अनुभव से दोनों के लिए रोमांचकारी हैं। निखिल कहते हैं- जनता ने इस कानून का जबरदस्त समर्थन किया है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके प्रति जागरूकता की अब भी कमी है। लेकिन अन्य कानूनों को देखें तो उनकी अपेक्षा पांच साल में आरटीआई के प्रति ज्यादा जागरूकता आयी है। आज नरेगा में होने वाला सामाजिक अंकेक्षण भी आरटीआई का ही हिस्सा है। पारदर्शिता के लिए देश की जनता ने मार खायी है और जान भी गंवायी है। आज सूचना कानून के सहारे सामाजिक संगठनों ही नहीं बल्कि आम लोगों को भी सूचना मिल रही है। इसका लाभ राजनीतिक दल और व्यावसायिक घराने भी उठा रहे हैं। मीडिया के लोग और सरकारी सेवक भी इससे सूचना ले रहे हैं। इसलिए हम जब जनता की बात कर रहे हैं तो ये सारे लोग सूचना लेने वालों की श्रेणी में आ जाते हैं। ऐसे लोगों ने इस कानून की ताकत और उपयोगिता समझ ली है। मैगसेसे पुरस्कार विजेता अरुणा राय के अनुसार इस कानून ने भारत के औपनिवेशिक शासनतंत्र को हिला दिया है। आज कोई भी अधिकारी कलम चलाते समय इस कानून को याद करता है। साठ साल में आम आदमी को पहले कभी किसी आवेदन या शिकायत का जवाब तक नहीं मिलता था। इस कानून ने पहली बार नागरिकों के पत्र का जवाब देने का जरिया पैदा किया है। यह एक नया मैकेनिज्म पैदा हुआ है। यह जनसूचना पदाधिकारी के रूप में किसी अधिकारी को अपने किये गये या नहीं किये गये काम के लिए जवाबदेह ठहराता है। आजादी के साठ साल में ऐसा पहली बार हुआ है। अन्य कानूनों में कोई हल नहीं निकलने पर नागरिकों को उसी विभाग के अधिकारी के पास जाना पड़ता था और वह कोई भी जवाब नहीं देने के लिए स्वतंत्र था। आज उसे जवाब देना होगा चाहे वह कैसा ही जवाब हो। इस नाते इस कानून ने हर आदमी को जबरदस्त ताकत दी है। आरटीआई कार्यकर्त्ता मनीष सिसौदिया के अनुसार मई 2006 में देश के 50 शहरों में चलाया गया घूंस को घूंसा अभियान एक अद्भुत प्रयोग था। इस अभियान के कारण हजारों नागरिकों को सूचना कानून का लाभ मिला और पूरे देश में जागरुकता आयी।

बिहार में आरटीआई आंदोलन से जुड़ीं परवीन अमानुल्लाह का मानना है कि इस कानून की जबरदस्त ताकत को भोथरा कर दिया गया है। खास तौर पर बिहार में काफी अफसोसजनक हालत है। राजनेताओं और नौकरशाहों का रवैया काफी नकारात्मक है, सूचना आयोग की भूमिका भी काफी उदासीनता भरी है। बिहार में सूचना कानून की असफलता का एक बड़ा कारण नीतीश सरकार द्वारा पिछले साल जारी एक अवैध नियमावली है। यह नियमावली सूचना कानून के प्रावधानों और भावना के सरासर खिलाफ है और इससे नौकरशाहों को मनमानी करने की छूट मिल गयी है।

इन पांच वर्षों में भ्रष्टाचार उजागर करने वाले आरटीआई कार्यकर्त्ताओं की प्रताड़ना और हत्या की लगभग एक दर्जन घटनाएं भी हुईं। इस पर केंद्रीय विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने 13 सितंबर को दिल्ली में केंद्रीय सूचना आयोग के पांचवें समारोह में गंभीर चिंता जतायी। उन्होंने कहा कि सूचना कानून को भ्रष्ट अधिकारियों तथा अन्य स्वार्थी तत्वों का शिकार बनने से रोकना होगा। उन्होंने विसिल ब्लोवर एक्ट लाने का भी आश्वासन दिया। किसी संस्थान में रहकर वहां मौजूद भ्रष्टाचार से लड़ना बेहद मुश्किल काम है। ऐसे लोगों को संरक्षण देने के लिए विसिल ब्लावर एक्ट की मांग लंबे समय से हो रही है। इसकी जरूरत डीवीसी यानी दामोदर वैली कारपोरेशन जैसे संस्थान के अनुभव से देखी जा सकती है। असम में संपन्न 33 वें नेशनल गेम के नाम पर डीवीसी ने एक करोड़ रुपये का चंदा एक निजी कंपनी के खाते में डाल दिया। ऐसी अनियमितताओं को उजागर करने में जुटे डीवीसी के ही एक अधिकारी अशोक कुमार जैन की पहल पर आरटीआई एक्ट दस्तावेज मिले। पता चला कि एक करोड़ रुपये का गबन हुआ है। आरटीआई के कारण एक करोड़ की राशि वापस मिली। आरटीआई के कारण ही डीवीसी में ठेकों व नियुक्तियों में गंभीर अनियमितताएं उजागर हुईं। इसी संस्थान में केंद्रीय सतर्कता आयोग से स्वच्छता प्रमाणपत्र हासिल किये बगैर सुब्रतो विश्वास को चेयरमैन बनाने का मामला आरटीआई से सामने आया। आरटीआई के कारण डॉ मधु मिश्रा को रांची के डोरंडा कॉलेज में व्याख्याता बनने का अवसर मिला। झारखंड लोक सेवा आयोग ने व्याख्याता नियुक्ति परीक्षा ली। इसमें डॉ मधु मिश्रा का चयन नहीं हुआ। उन्हें कुछ अनियमितताओं का संदेह हुआ। उन्होंने जेपीएससी से सूचना मांगी। पता चला कि उनसे कम अंक वाले उम्मीदवार का चयन हुआ है। इस सूचना के आधार पर उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की। अदालत में जेपीएससी ने अपनी गलती स्वीकारी। इस तरह डॉ मधु को नौकरी मिल गयी।

झारखंड आरटीआई फोरम के अध्यक्ष बलराम के अनुसार यह कानून देश मं सुशासन की नयी उम्मीद लेकर आया है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखने के लिए भी ऐसा कानून जरूरी है जो नागरिकों को शासन में भागीदारी का एहसास कराये।

बिकाऊ है भारत सरकार, बोलो खरीदोगे ?


अरविन्द केजरीवाल
(प्रमुख आरटीआई एक्टिविस्ट एवं सामाजिक कार्यकर्ता)
पहले आयकर विभाग में काम किया करता था। 90 के दशक के अंत में आयकर विभाग ने कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सर्वे किया। सर्वे में ये कंपनियां रंगे हाथों टैक्स की चोरी करते पायी गयीं, उन्होंने सीधे अपना जुर्म कबूल किया और बिना कोई अपील किये सारा टैक्स जमा कर दिया। अगर ये लोग किसी और देश में होते तो अभी तक उनके वरिष्ठ अधिकारियों को जेल भेज दिया गया होता। ऐसी ही एक कम्पनी पर सर्वे के दौरान उस कम्पनी के विदेशी मुखिया ने आयकर टीम को धमकी दी - ‘‘भारत एक बहुत गरीब देश है। हम आपके देश में आपकी मदद करने आये हैं। आपको पता नहीं हम कितने ताकतवर हैं। हम चाहें तो आपकी संसद से कोई भी कानून पारित करा सकते हैं। हम आप लोगों का तबादला भी करा सकते हैं।’’ इसके कुछ दिन बाद ही इस आयकर टीम के एक हेड का तबादला कर दिया गया। उस वक्त मैंने उस विदेशी की बातों पर ज्यादा गौर नहीं किया। मैंने सोचा कि शायद वो आयकर सर्वे से परेशान होकर बोल रहा था, लेकिन पिछले कुछ सालों से मुझे धीरे-धीरे उसकी बातों में सच्चाई नजर आने लगी है। जुलाई 2008 में यू.पी.ए. सरकार को संसद में अपना बहुमत साबित करना था। खुलेआम सांसदों की खरीद-फरोख्त चल रही थी। कुछ टी.वी. चैनलों ने सांसदों को पैसे लेकर खुलेआम बिकते दिखाया। उन तस्वीरों ने इस देश की आत्मा को हिला दिया। अगर सांसद इस तरह से बिक सकते हैं तो हमारे वोट की क्या कीमत रह जाती है। मैं जिस किसी सांसद को वोट करूँ, जीतने के बाद वह पैसे के लिए किसी भी पार्टी में जा सकता है। दूसरे, आज अपनी सरकार बचाने के लिए इस देश की एक पार्टी उन्हें खरीद रही है। कल को उन्हें कोई और देश भी खरीद सकता है। जैसे अमरीका, पाकिस्तान इत्यादि। हो सकता है ऐसा हो भी रहा हो, किसे पता? यह सोच कर पूरे शरीर में सिहरन दौड़ पड़ी- क्या हम एक आजाद देश के नागरिक हैं? क्या हमारे देश की संसद सभी कानून इस देश के लोगों के हित के लिए ही बनाती है? अभी कुछ दिन पहले जब अखबारों में संसद में हाल ही में प्रस्तुत न्यूक्लीयर सिविल लायबिलिटी बिल के बारे में पढ़ा तो सभी डर सच साबित होते नजर आने लगे। यह बिल कहता है कि कोई विदेशी कम्पनी भारत में अगर कोई परमाणु संयंत्र लगाती है और यदि उस संयंत्र में कोई दुर्घटना हो जाती है तो उस कम्पनी की जिम्मेदारी केवल 1500 करोड़ रुपये तक की होगी। दुनियाभर में जब भी कभी परमाणु हादसा हुआ तो हजारों लोगों की जान गयी और हजारों करोड़ का नुकसान हुआ। भोपाल गैस त्रासदी में ही पीड़ित लोगों को अभी तक 2200 करोड़ रुपया मिला है जो कि काफी कम माना जा रहा है। ऐसे में 1500 करोड़ रुपये तो कुछ भी नहीं होते। एक परमाणु हादसा न जाने कितने भोपाल के बराबर होगा? इसी बिल में आगे लिखा है कि उस कम्पनी के खिलाफ कोई आपराधिक मामला भी दर्ज नहीं किया जायेगा और कोई मुकदमा नहीं चलाया जायेगा। कोई पुलिस केस भी नहीं होगा। बस 1500 करोड़ रुपये लेकर उस कम्पनी को छोड़ दिया जायेगा। यह कानून पढ़कर ऐसा लगता है कि इस देश के लोगों की जिन्दगियों को कौड़ियों के भाव बेचा जा रहा है। साफ-साफ जाहिर है कि यह कानून इस देश के लोगों की जिन्दगियों को दांव पर लगाकर विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हमारी संसद ऐसा क्यों कर रही है? यकीनन या तो हमारे सांसदों पर किसी तरह का दबाव है या कुछ सांसद या पार्टियां विदेशी कम्पनियों के हाथों बिक गयी हैं। भोपाल गैस त्रासदी के हाल ही के निर्णय के बाद अखबारों में ढेरों खबरें छप रही हैं कि किस तरह भोपाल के लोगों के हत्यारे को हमारे देश के उच्च नेताओं ने भोपाल त्रासदी के कुछ दिनों के बाद ही राज्य अतिथि सा सम्मान दिया था और उसे भारत से भागने में पूरी मदद की थी। इस सब बातों को देखकर मन में प्रश्न खड़े होते हैं---क्या भारत सुरक्षित हाथों में है? क्या हम अपनी जिन्दगी और अपना भविष्य इन कुछ नेताओं और अधिकारियों के हाथों में सुरक्षित देखते हैं? ऐसा नहीं है कि हमारी सरकारों पर केवल विदेशी कम्पनियों या विदेशी सरकारों का ही दबाव है। पैसे के लिए हमारी सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। कितने ही मंत्री और अफसर औद्योगिक घरानों के हाथ की कठपुतली बन गये हैं। कुछ औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बहुत ज्यादा बढ़ गया है। अभी हाल ही में एक फोन टैपिंग मामले में खुलासा हुआ था कि मौजूदा सरकार के कुछ मंत्रियों के बनने का निर्णय हमारे प्रधानमंत्री ने नहीं बल्कि कुछ औद्योगिक घरानों ने लिया था। अब तो ये खुली बात हो गयी है कि कौन सा नेता या अफसर किस घराने के साथ है। खुलकर ये लोग साथ घूमते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कुछ राज्यों की सरकारें और केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रालय ये औद्योगिक घराने ही चला रहे हैं। यही कारण है कि हमारे देश की खदानों को इतने सस्ते में इन औद्योगिक घरानों को बेचा जा रहा है। जैसे आयरन ओर की खदानें लेने वाली कम्पनियां सरकार को महज 27 रुपये प्रति टन रॉयल्टी देती हैं। उसी आयरन ओर को ये कम्पनियां बाजार में 6000 रुपये प्रति टन के हिसाब से बेचती हैं। क्या यह सीधे-सीधे देश की सम्पत्ति की लूट नहीं है? इसी तरह से औने-पौने दामों में वनों को बेचा जा रहा है, नदियों को बेचा जा रहा है, लोगों की जमीनों को छीन-छीन कर कम्पनियों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। इन सब उदाहरणों से एक बात तो साफ है कि इन पार्टियों, नेताओं और अफसरों के हाथ में हमारे देश के प्राकृतिक संसाधन और हमारे देश की सम्पदा खतरे में है। जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो ये लोग मिलकर सब कुछ बेच डालेंगे। इन सब को देखकर भारतीय राजनीति और जनतंत्र पर एक बहुत बड़ा सवालिया निशान लगता है। सभी पार्टियों का चरित्र एक ही है। हम किसी भी नेता या किसी भी पार्टी को वोट दें, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। पिछले 60 सालों में हम हर पार्टी, हर नेता को आजमा कर देख चुके हैं। लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। इससे एक चीज तो साफ है कि केवल पार्टियाँ और नेता बदल देने से बात नहीं बनने वाली। हमें कुछ और करना पड़ेगा। हम अपने संगठन परिवर्तन के जरिये पिछले दस सालों में विभिन्न मुद्दों पर काम करते रहे हैं। कभी राशन व्यवस्था पर, कभी पानी के निजीकरण पर, कभी विकास कार्यों में भ्रष्टाचार को लेकर इत्यादि। आंशिक सफलता भी मिली। लेकिन जल्द ही यह आभास होने लगा कि यह सफलता क्षणिक और भ्रामक है। किसी मुद्दे पर सफलता मिलती जब तक हम उस क्षेत्र में उस मुद्दे पर काम कर रहे होते, ऐसा लगता कि कुछ सुधार हुआ है। जैसे ही हम किसी दूसरे मुद्दे को पकड़ते, पिछला मुद्दा पहले से भी बुरे हाल में हो जाता। धीरे-धीरे लगने लगा कि देश भर में कितने मुद्दों पर काम करेंगे, कहां-कहां काम करेंगे। धीरे-धीरे यह भी समझ में आने लगा कि इस सभी समस्याओं की जड़ में ठोस राजनीति है। क्योंकि इन सब मुद्दों पर पार्टियां और नेता भ्रष्ट और आपराधिक तत्वों के साथ हैं और जनता का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है। मसलन राशन की व्यवस्था को ही लीजिए। राशन चोरी करने वालों को पूरा-पूरा पार्टियों और नेताओं का संरक्षण है। यदि कोई राशन वाला चोरी करता है तो हम खाद्य कर्मचारी या खाद्य आयुक्त या खाद्य मंत्री से शिकायत करते हैं। पर ये सब तो उस चोरी में सीधे रूप से मिले हुए हैं। उस चोरी का एक बड़ा हिस्सा इन सब तक पहुंचता है। तो उन्हीं को शिकायत करके क्या हम न्याय की उम्मीद कर सकते हैं। यदि किसी जगह मीडिया का या जनता का बहुत दबाव बनता है तो दिखावे मात्र के लिए कुछ राशन वालों की दुकानें निरस्त कर दी जाती हैं। जब जनता का दबाव कम हो जाता है तो रिश्वत खाकर फिर से वो दुकानें बहाल कर दी जाती हैं। इस पूरे तमाशे में जनता के पास कोई ताकत नहीं है। जनता केवल चोरों की शिकायत कर सकती है कि कृपया अपने खिलाफ कार्रवाई कीजिए। जो होने वाली बात नहीं है। सीधे-सीधे जनता को व्यवस्था पर नियंत्रण देना होगा जिसमें जनता निर्णय ले और नेता व अफसर उन निर्णयों का पालन करें। क्या ऐसा हो सकता है? क्या 120 करोड़ लोगों को कानूनन निर्णय लेने का अधिकार दिया जा सकता है? वेसे तो जनतंत्र में जनता ही मालिक होती है। जनता ने ही संसद और सरकारों को जनहित के लिए निर्णय लेने का अधिकार दिया है। संसद, विधानसभाओं और सरकारों ने इस अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। उन्होंने पैसे खाकर खुलेआम और बेशर्मी से जनता को और जनहित को बेच डाला है और इस लूट में लगभग सभी पार्टियाँ हिस्सेदार हैं। क्या समय आ गया है कि जनता नेताओं, अफसरों और पार्टियों से अपने बारे में निर्णय लेने के अधिकार वापस ले ले? समय बहुत कम है। देश की सत्ता और देश के साधन बहुत तेजी से देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथों में जा रहे हैं। जल्द कुछ नहीं किया गया तो बहुत देर हो चुकी होगी। (पीएनएन)

RTI Forum felicitates 11 for their vigilance


Citizen crusaders in hall of fame The Right to Information Act, 2005 (RTI) — enabling every Indian citizen to seek information from a public authority, to be given within 30 days — completed five years on Tuesday. People have used the Act to question, probe, demand transparency and voice dissent. Meet 11 citizen vigilantes of the state, who were felicitated by Jharkhand RTI Forum on Tuesday in the capital for ushering in winds of change The Telegraph : 16-10-10 Road runner Dipesh Kumar Nirala (25), social activist, Simdega RTI push: Joram-Deobahal-Ambapani Road on Jharkhand-Orissa border was built in 2008 under Pradhan Mantri Grameen Sadak Yojana. But the 8km stretch wilted so soon that Dipesh filed an RTI query. Citizenspeak: “Investigations by district authorities — an executive engineer and an assistant engineer of rural engineering organisation department — revealed poor construction. I forwarded a copy of the probe to chief secretary Ashok Kumar Singh this May, who constituted a probe committee, which said the same. I also forwarded a copy to the Prime Minister’s Office (PMO), which sent a probe team of the National Rural Road Development Agency. Action against erring officials is still awaited.” Class act Pushpa Kumari (25), student, Ranchi RTI push: Pushpa, an underprivileged political science student of Ranchi University (RU), learnt from a newspaper advertisement that a varsity must admit two BPL students free of cost in each PG department. But her varsity did not follow the rule. Citizenspeak: “Through RTI, I got a document from RU about the free admission provision. Now, I don’t pay any fee. My using the RTI Act has helped other BPL students pursue higher education.” Red tape trim Mukesh Lakra (44), bureaucrat, Ranchi RTI push: As public information officer, Lakra has helped many RTI applicants. Even semi-literates seek his directions on the application process. Citizenspeak: “I believe in the RTI Act as it prods an official to be more responsible and empowers people with the right to know what government officers are doing for them.” Honour roll Abhishek Pandey (25), student, Ranchi RTI push: A Ranchi University topper in 2008, Abhishek was to get Rs 40,000 as scholarship from University Grants Commission (UGC). But varsity officials said they had no idea about it. Citizenspeak: “Through an RTI application, I learnt that UGC had already sent money to the varsity. My application helped eight more students to get their scholarship.” Scam show Vikas Kumar Sinha (33), journalist, Ranchi RTI push: An organisation, Vikas Evam Kalyan Samiti, advertised for recruitment of 450 employees. Sensing fraud, Vikas sought information from Ranchi district authorities about the organisation. Citizenspeak: “The so-called Samiti was cheating the unemployed. RTI has the power to clean the system.” Exposing the rot Julius Ekka (35), unemployed youth, Ranchi RTI push: Julius was selected by Bharat Coking Coal Limited (BCCL) as a vehicle operator in 2005, but the organisation took more than two and half years to get his tribal status verified from Ranchi district administration. Then, his appointment was cancelled, citing delay in the process. Citizenspeak: “I exposed the rotten system of BCCL, but I am still unemployed.” Spreading the word Sanjeev Kumar (35), businessman-cum-activist, Ranchi RTI push: Sanjeev joined the Jharkhand RTI Forum, Federation of Jharkhand Chamber of Commerce and Industries and Citizen Club through which he stepped up awareness about the Act. Citizenspeak: “More people, including advocates, should work to make the RTI Act popular among the masses.” Public benefit Suchita Devi (50), housewife, Ramgarh RTI push: The Public Distribution System (PDS) dealer of Gola in Ramgarh district had withheld benefits from some PDS card holders, saying they did not have their names on the list. Suchitra Devi filed an RTI to get the complete list of beneficiaries. Citizenspeak: “I am happy my application helped many people get their rightful PDS benefits.” Justice at last Geeta Devi (71), housewife, Dhanbad RTI push: She filed an RTI petition, seeking payment from the district administration for work that her late husband, a contractor, did way back in 1981. Using the Act, she obtained proof that payment was due, and officials had to pay up. Citizenspeak: “The courts had not been able to help me. When I got Rs 58,513 in March this year, after 29 years, I could not control my tears. The Act is so powerful.” Right marks Madhu Mishra (38), lecturer, Ranchi RTI push: Madhu Mishra sensed something amiss with Jharkhand Public Service Commission’s results of recruitment exams for college teachers. She used RTI and got the marks of all candidates who had been selected, as well as her own. Citizenspeak: My marks were better than some others, whom the JPSC had recommended for appointment. I filed a case in Jharkhand High Court, which directed Ranchi University to appoint me. I now teach in Doranda College. Corruption vigil Baijnath Mahto (30), social activist, Dhanbad RTI push: Used the RTI Act to get information on various welfare projects — MGNREGA, Integrated Child Development Scheme, et al — as well as funds allotted for them in Topchachi block of Dhanbad, to let villagers know about the exact quantum of funds allotted for each scheme. Citizenspeak: “Transparency helps check bureaucratic corruption and helps villagers become vigilant. This Act is a powerful tool.” Compiled by SANTOSH K. KIRO

Four information commissioners skip RTI meet

The Telegraph, 06-12-2010 Magsaysay awardee Arvind Kejriwal takes umbrage at blatant violation of act by state body OUR CORRESPONDENT Ranchi, Dec. 5: A public hearing on the right to information (RTI) Act in the capital and only two of the six state information commissioners show up, baring a blundering and laggard organisation that passes as the sentinel of truth in Jharkhand. The State Information Commission (SIC), vested with the powers to ensure implementation of the RTI Act of 2005 in the tribal heartland, is suppressing more facts than it is disseminating, activists claimed at today’s meet, leaving Magsaysay awardee Arvind Kejriwal surprised and shocked. Gangotri Kujur and Srishtidhar Mahto, the two commissioners present at the hearing, have been submitting copies of their judgments to the National Information Commission for review. However, the others — Ram Vilas Gupta, who is the acting chief information commissioner, P.K. Mahto, H.P. Munda and Baijnath Mishra — seem to have taken the liberty not to furnish copies of verdicts on grounds like no photocopying machines and staff crunch. “It is unfortunate that officials responsible for dissemination of information are suppressing the same. They need to amend their ways at the earliest. If the SIC fails to provide information, how can it expect others to ensure transparency?” Kejriwal said, adding that the information commissioners should step down if the allegations were true. Kejriwal also threatened to meet the governor and move Jharkhand High Court on the issue. Jharkhand RTI Forum general secretary Vishnu Rajgariah pointed out that the information commissioners were often hostile towards information seekers and indulgent to a fault when it came to state and central government officials appointed as public information officers (PIOs). “An RTI application to a PIO is required to be disposed of within 30 days. If information provided by the PIO is inadequate, one can lodge a complaint with the SIC. But here, the commission connives with PIOs to conceal information,” Rajgariah said. Even the mandatory penalty of Rs 250 per day after the 30-day deadline is rarely slapped on PIOs, which means the commission violates the RTI Act more than any other individual or organisation. Continuing the tirade, Brahmadeo Mandal, an RTI activist from Dumka, said one of the commissioners was also in the habit of driving away information seekers from his office, labelling them as “agents who destroy peace”. “Such commissioners should be penalised as per RTI provisions,” he said. Jasim Khan of Gumla alleged that the personal assistant of one of the information commissioners had demanded Rs 10,000 as bribe while crusader Imtiaz Ashraf claimed that acting chief information commissioner Gupta discouraged all those seeking information on the high court. To soothe frayed nerves, the two commissioners present at the meet assured activists that they would fine PIOs who failed to provide information within the specified time. They added that arrest warrants could also be issued if PIOs failed to turn up at hearings. Speaking to The Telegraph, Baijnath Mishra said they were not obliged to attend public hearings on judgments earlier pronounced by the SIC. He added that the commission did not have a website where judgments could be uploaded.

A whistle blower suffers for raising voice

Vinod Kumar Gupta, 10-Dec-2010
A whistle blower suffers for raising voice against corruption in DVC Friday December 10, 2010 Calcutta A K Jain, Deputy Chief Engineer Damodar Valley Corporation blew the whistle against corruption and mismanagement in the corporation five years ago and fought different battles leading to repatriation of high officials but he is waiting for his long overdue promotion. He was issued various charge sheets for making complaints against high officials indulging in corruption and even his dismissal from service was imitated for seeking information under Right to Information Act. Jain was issued charge-sheet in May 2005 for making complaint before the Central Vigilance Commission (CVC) for different cases of corruption. This charge-sheet was withdrawn later after intervention of the then Central Vigilance Commissioner P. Shankar. DVC transferred him from Maithon to Kolkata on April 9 2008 and released next day by a release order served in the evening of April 10. He was threatened by a criminal on April 16 while he was on transit leave. On joining April 22 at Kolkata he was served with an explanation letter for purchase of 60 MT cement, while he was working as Dy CE, TSC at Maithon. No job was allotted to him in spite of his pointing out to the Director concerned till August 03.10. For his filing RTI applications, the then DVC management decided to terminate his services but they could not do so as Solicitor General did not opine to this effect. Another law firm at Kolkata was also consulted in this respect, they also did not agree and thereafter they decided to charge-sheet him one after another bringing false and fabricated charges. One charge-sheet was issued on 15.12.2008 for some news published on 07.12.2008, the reply against which was submitted in time on 22.12.2008. However; he has been exonerated of the charges by the present management few days back only. Two more charge-sheets were issued on 06.02.2009, one for asking for leave to attend appointed meeting with Addl. Secretary, CVC on 26.12.2008 for apprising him about life threat and mental torture by DVC management and other one for procurement of 60 MT of cement on urgent basis. The charge sheets were initiated purely with malafied intension in connivance with the then management for raising voice against corrupt practices of the management. It may be mentioned that two successive Chairmen Asim Kumar Barman and Subrata Biswas were removed from DVC after Jain and All India Power Engineers' Federation took up the matter with CVC and PMO .The matter was also raised by Medha Patkar, Kuldip Nayar and Pushpraj .

अधिकारियों के लिए भी मददगार आरटीआइ


डा. विष्णु राजगढ़िया
पहले कुछ अधिकारियों में धारणा थी कि आरटीआइ से उन्हें परेशानी है। लेकिन अब अधिकारी भी अपने हित में इसका उपयोग कर रहे हैं। पलामू की उपायुक्त श्रीमती पूजा सिंहल को एक आरोप की सच्चाई सामने लाने के लिए आरटीआइ की मदद मिली। झारखंड के ही एक आइएएस को सीबीआइ व आयकर की कार्रवाई से राहत में आरटीआइ का उपयोग हुआ। इस कानून ने देश को एक सकारात्मक दिशा दी है। श्रीमती पूजा सिंहल ने आरटीआइ से मिली सफलता से उत्साहित होकर कहती हैं- जिस मामले में मैं किसी भी रूप से शरीक नहीं थी, उस मामले में मुझ पर अनावश्यक आरोप लगाये गये। इसके कारण मैंने खंूटी के जिला जनसूचना अधिकारी से उस मामले के दस्तावेज सूचना के अधिकार के तहत हासिल किये। इन दस्तावेजांे से साफ है कि मेरे खिलाफ दुष्प्रचार किया गया है।
इस संबंध में रांची से प्रकाशित द पायोनियर की न्यूज स्टोरी इस प्रकार है-
The PIONEER : October 14, 2010 Palamu DC fights allegation through RTI Daltenganj : Palamu Deputy Commissioner Pooja Singhal Purwar had to sought information under the Right to Information Act to challenge allegation of irregularites in awarding work to a junior engineer without following the proper channel during her tenure in Khunti as DC. On October 8, she sought information from the Khunti district public information officer who provided an undersigned information dated October 12. A photo copy of the information sent by the Khunti is with The Pioneer. (letter number 455.nazareth 12.10.10 Khunti) A section of media (not The Pioneer) wrote that when she was the Khunti DC, she hardly cared for the prescribed norms in ordering advances to be made to the engineers and thus she flouted the norms and provisions. Pooja Sinnghal Purwar strongly rubbished it and said there was no such thing. She did one thing. She obtained information in this regard very officially from Khunti itself under the RTI as information given in writing so by the Khunti officer has all legal sanctity and teeth too. The Pioneer spoke to her on Wednesday October 13 to know as to what made her to seek RTI help. Pooja Singhal Purwar said in the past few days there has been a systematic and vicious campaign against her in which her integrity and credentials are doubted and so she thought it proper to have the picture clear under the RTI. Q: You are in the news for your previous posting at Khunti. What is this? DC: Yes, a couple of dailies wrote about me. I do not know why? My stint in Khunti where I was posted in the same capacity as DC as I am here I spent every hour and every day there for the betterment of the poor. Q: Have you straight way given work order to junior engineer Ram Binod Prasad Sinha there in Khunti when you were the Khunti DC? DC: No, never. You see yourself. What the district public information officer Khunti has given in writing. His is a big No. I never gave any straight work order to this junior engineer. Q: Was the JE Sinha given advance without the executive engineer medium? DC: My answer to this is again a very bold no. She showed the copy of the Khunti officer. It also read 'nahi'. Q: When you were the DC Khunti did you take any action against the executive engineers there in Khunti district who were given advances by the Khunti DC (yourself) for their not doing any work against the advances? DC: Yes actions were taken by me. The executive engineer of the Gramin Vikas Vishesh Parmandal Ranchi & Khunti was relieved of the responsibility of the implementation agency of the construction of the Sanyukt Sahkareeta Bhavan there. A 'Parpatra Ka' was readied and sent to principal secretary rural development against the executive engineer of gramin vikas vishesh parmandal for the executive engineer's dereliction and indifference towards work assigned to him. The executive engineer was show caused also for his negligence in the schemes under NREGA. Since this executive engineer did not reply the show cause so served on him to which the administration then recommended for the suspension and initiation of departmental proceedings against him and wrote about him to the principal secretary rural development department. Even permission for lodging of FIR against this executive engineer was sought from the Government. And at last orders were given to the BDO Raneeya in Khnti district to lodge the FIR against this executive engineer with the Raneeya police station. Q: Why is it that the past chases you where ever you go? DC: I am for the poor. I work in accordance with law. This may not have gone down any well with some people there in Khunti. Q: Is there any this predecessor successor angle to it of which you are being so hunted? DC: I believe in mutual respect. For me there is no such angle as you say. We are Government servants. We come and go. Q: It is said you believe in making more enemies than loyalists. Is this? DC: I do not know. I believe I do my job sincerely. I do not know how people become so low to spread all kinds of canard. This is not a healthy practice. You have seen all the papers now Q: Do you think a particular caste men launched this smearing campaign against you? DC; No comment.