Thursday, November 26, 2009

बिहार में सूचनाधिकार: अभी दिल्ली दूर है....

अफ़रोज़ आलम साहिल

बिहार के सुशासन बाबू नीतीश कुमार ने 29 जनवरी 2007 को बिहार में सूचना अधिकार के नाम पर एक क्रांति का सूत्रपात किया था. सुशासन बाबू ने फोन के जरिए सूचना देने का क्रांतिकारी प्रयोग किया था. इस लिहाज से प्राइसवाटर हाउस कूपर्स से लेकर सोनिया गांधी तक सभी ने सुशासन बाबू की इस पहल की जमकर तारीफ की थी और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे बिहार को सूचना अधिकार का रोल मॉडल घोषित कर दिया था. लेकिन क्या सूचना अधिकार का यह रोल मॉडल काम कर रहा है?
देश में बढ़ते भ्रष्टाचार व अपारदर्शिता से निपटने हेतु लागू किए गए ‘सूचना के अधिकार’ को नाफिज़ हुए चार वर्ष मुकम्मल हो चुके हैं। और ये सच है कि जब भी ‘सूचना के अधिकार' का ज़िक्र होगा तो बिहार राज्य का नाम ज़रुर आएगा, क्योंकि बिहार इस मामले में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि नीतिश जी के लफ़्ज़ों में पूरे विश्व का ‘मॉडल स्टेट' है। हमारे देश में बिहार ही एक ऐसा राज्य जहां फोन के माध्यम से ‘सूचना के अधिकार' का आवेदन किसी भी विभाग में डाल सकते हैं। इसके लिए यहां 29 जनवरी 2007 से ‘जानकारी' नामक एक कॉल सेंटर स्थापित है। इस कॉल सेंटर की मीडिया व सिविल सोसाईटी की जानिब से खूब प्रशंसा की गई। यहां तक कि इसके लिए बिहार सरकार को कई पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया। यही नहीं, मशहूर कंसल्टेंसी एजेंसी प्राइसवाटर हाउसकूपर्स के साथ-साथ सोनिया गांधी भी इसकी मुरीद हैं। कार्मिक मंत्रालय तो इससे इतना प्रभावित है कि इस तरह का कॉल सेंटर पूरे देश भर में शुरु करने का मन बना रही है। पर अफसोस पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और ही है।

इस ‘मॉडल स्टेट' में इस अधिकार की जो दयनीय हालत है, शायद उसे लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता। बिहार के दूसरे विभागों से सूचना दिलवाने वाली ये ‘कॉल सेंटर' खुद बीमार है। शुरु के एक-डेढ़ साल तो हमें ‘ये नंबर सेवा में नहीं है' या फिर ‘डायल किया गया कृपया जांच लें' की सदा सुनाई देती रही और अब रिंग होता रहे और कोई फोन रिसीव न करे या फिर फोन उठाकर आपका फोन काट दे तो इसमें ज़्यादा हैरान होने की ज़रुरत नहीं है, और अगर आपका आवेदन दर्ज कर लिया जाए तो इस स्थिती में आप सूचना मिलने की ज़्यादा उम्मीद मत रखिएगा। हो सकता है कि फोन से दस रुपये बतौर फीस कटने के बाद भी कुछ विभाग आपसे फीस की मांग करें, या सूचना पूछने के जुर्म में जेल की हवा खानी पड़े, या फिर हो सकता है कि एक साल के बाद आपको सूचना मिले वो भी आधी।अधूरी। और अगर आपने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की ठान ली है तो फिर आप लोगों के लिए स्वयं एक हास्यापद सूचना हैं।

हालत तो यह है कि सूचना उपलब्ध करवाने वाला ‘कॉल सेंटर' और ‘राज्य सूचना आयोग' खुद अपनी सूचना देना मुनासिब नहीं समझते। ऐसे में बाकी विभागों का क्या रवैया होगाए इसका अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं। हालांकि नीतिश सरकार ने इस अधिकार के प्रचार व प्रसार में काफी पैसे बहाये हैं। सूचना के अधिकार के तहत काफी मेहनत व मुशक्कत के बाद 18 नवंबर 2008 को मिली सूचना के अनुसार इस अधिकार के व्यापक प्रचार।प्रसार हेतु सूचना एवं जन सम्पर्क विभागए बिहार द्वारा मेघदूत पोस्टकार्ड योजना के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1।25 लाख पोस्टकार्ड का मुद्रण किया गयाए जिस पर कुल लागत 2.50 लाख रुपये है। पोस्टर मुद्रण पर 22,500. (बाइस हज़ार पांच सौ) रुपये तथा फ्लैक्स संस्थापन के कार्य पर 52,763 (बावन हज़ार सात सौ तिरसठ) रुपये खर्च किया गया। इसके अतिरिक्त प्रखंडों के आधार पर इसके प्रचारार्थ होर्डिंगए फ्लैक्स एंव पम्पलेट निर्माण हेतु कुल 21,48,000(इक्कीस लाख अड़तालीस हज़ार) रुपये खर्च किया गया है। केन्द्रीय प्रायोजित योजना के तहत भी राज्य को कार्यशाला एंव सेमिनार के माध्यम से प्रचार.प्रसार हेतु 50,000 (पचास हज़ार) रुपये ज़िलाधिकारी पटना को मिला।
सूचना के अधिकार के तहत मिली एक अन्य सूचना के अनुसार बिहार स्टेट इलेक्ट्रॉनिक डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के ज़रिए आउटसोर्सिंग व्यवस्था से चलने वाली छह सीटर कॉल सेंटर को कार्मिक व प्रशासनिक सुधार विभाग, बिहार से दिनांक 25 सितम्बर 2007 को 33,26,000/- (तैतीस लाख छब्बीस हज़ार) रुपये प्राप्त हुए जबकि इसने खर्च किया 34,40,586/- (चौतीस लाख चालीस हज़ार पांच सौ छियासी) रुपये।

वहीं बिहार राज्य सूचना आयोग में वर्ष 2008-09 तक 2,75,43,072/- (दो करोड़ पचहत्तर लाख तिरालीस हज़ार बहत्तर) रुपये की राशि खर्च की गई। पर अफसोस! इतने खर्च के बावजूद ये राज्य सूचना आयोग दो ही आयुक्तों के सहारे चल रहा है, जबकि एक मुख्य सूचना आयुक्त सहित 10 आयुक्त यहां होने चाहिए। दिलचस्प बात तो यह है कि यहां मुख्य सूचना आयुक्त का पद ही खाली है, क्योंकि अक्टूबर 2008 में मुख्य सूचना आयुक्त न्यायमूर्ति शशांक कुमार सिंह सेवानिवृत हो गए और राज्य सरकार ने पटना हाईकोर्ट के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश जे।एन.भट्ट को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया लेकिन श्री भट्ट ने आज तक मुख्य सूचना आयुक्त का पदभार ग्रहण नहीं किया। यही कारण है कि जून 2009 तक के रिपोर्ट के मुताबिक 9106 वादों की सुनवाई आयोग के समक्ष प्रक्रियाधीन है, क्योंकि सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार अक्टूबर 2006 से जून 2009 तक आयोग में कुल 20572 वाद दर्ज गए, जिनमें से 11466 वादों का निष्पादन कर दिया गया है। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि हर आवेदक के द्वितीय अपील के बाद जुर्माना लगाने की बात करने वाली ये आयोग अब तक 23 जन सूचना अधिकारियों पर ही जुर्माना लगा सकी है, जिससे आयोग को मात्र 3,16,750/- (तीन लाख सोलह हज़ार सात सौ पचास) रुपये की आमदनी हुई है। अब आप स्वयं सोचिए कि ऐसे में कोई सूचना अधिकारी किसी को सूचना क्यों दे…? और जब मॉडल स्टेट की हालत ये है तो बाकी राज्यों में इस अधिकार के हश्र का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं।

लालू के लालटेन युग के बाद बिहार की जनता में यह उम्मीद जगी थी कि शायद अब भ्रष्टाचार पर लगाम लग जाएगी, लेकिन सुशासन के दौर में भी भ्रष्टाचार बेलगाम बढ़ता ही जा रहा है। खैर, बिहार सुधर सकता है, गरीबी का पहाड़ समतल हो सकता है, पर शर्त है कि पुराना ढब बदला जाए, पर यहां के सरकारी अधिकारी ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे।
अफ़रोज़ आलम साहिल
Posted by “लीक से हट कर”

Monday, September 7, 2009

भ्रष्ट अफसरों ने लगाया सूचना कानून में पंचर

मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग के आदेश को सूचना आयुक्त ने अवैध करार दिया
विष्णु राजगढ़िया
रांची : झारखंड में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। सूचना का अधिकार के जरिये नागरिक इसका भंडाफोड़ कर रहे हैं। इससे बौखलाये अधिकारियों ने सूचना कानून में छेद लगाने का अच्छा बहाना ढूंढ़ लिया है। झारखंड मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग के आदेश का सहारा लेकर सूचना मांगने वाले नागरिकों का आर्थिक एवं मानसिक भयादोहन शुरू कर दिया है।
यहां तक कि निरसा क्षेत्र के पूर्व मासस विधायक अरूप चटर्जी को भी इसका शिकार होना पड़ा है। उनसे एक अधिकारी के एक दिन का वेतन 250 रुपये वसूला गया है। उन्हें 56 पेज की सूचना के लिए 358 रुपये जमा करने पड़े। श्री चटर्जी के अनुसार भ्रष्ट अधिकारियों की इस साजिश के खिलाफ वह कानून का दरवाजा खटखटायेंगे।
पाकुड़ के पत्रकार कृपासिंधु बच्चन ने राज्य में नियुक्ति और प्रोन्न्तियों से जुड़े बड़े घोटाले का परदाफाश किया है। इसी सिलसिले में उन्होंने पाकुड़ जिला स्थापना शाखा से कतिपय सूचना मांगी थी। गत 25 अगस्त को उन्हें आठ पेज की सूचना दी गयी। इसके एवज में उनसे 156 रुपये वसूले गये जबकि नियमत: दो रुपये प्रति पृष्ठ की दर से सिर्फ 16 रुपये लगने चाहिए थे। शेष 140 रुपये इस सूचना को तैयार करने में सरकारी अधिकारी के वेतन के नाम पर अवैध रूप से वसूले गये।
पिछले तीन महीने से झारखंड में सूचना के लिए नागरिकों से मनमानी फीस मांगने की शिकायतें मिल रही थीं। अब पता चला है कि मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग के एक आदेश से यह समस्या आयी है। पांच जून को यह आदेश राज्य के सभी जिला निर्वाचन पदाधिकारियों सह उपायुक्तों के पास भेेजा गया था। उपायुक्त कार्यालयों ने जिले के जनसूचना अधिकारियों के पास इसकी प्रतिलिपि भेज दी। यह आदेश सूचना के एवज में लंबी-चौड़ी फीस मांगने का हथियार बन गया।
राज्य सूचना आयुक्त बैजनाथ मिश्र के अनुसार झारखंड मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग का आदेश अवैध माना जायेगा क्योंकि फीस व लागत संबंधी नियम बनाने तथा ऐेसे निर्देश निर्गत करने का अधिकार राज्य के कार्मिक एवं प्रशासनिक विभाग को है, किसी अन्य को नहीं। उस आदेश में भारत सरकार के कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के अप्रैल 2008 के एक पत्र की गलत व्याख्या की गयी है। भारत सरकार का वह पत्र जनसूचना अधिकारियों को उनके कर्तव्य की जानकारी देते हुए धारा चार
के तहत सूचनाओं की स्वघोषणा के जरूरी दायित्व के प्रति सचेत करने के उद्देश्य से जारी किया गया था।
लेकिन झारखंड के मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग ने धारा चार के तहत 17 सूचनाओं की स्वघोषणा नि:शुल्क प्रसारित करने के बजाय इसके नाम पर अवैध वसूली का आदेश निर्गत कर दिया। धारा चार में किसी भी प्रकार का शुल्क वसूलने का प्रावधान नहीं है।
उस आदेश में सूचना कानून की धारा छह के सूचना जुटाने के व्यय का आकलन करके नागरिकों से वसूलने की बात कही गयी है। जबकि धारा छह में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। आदेश में कहा गया है कि सूचना जुटाने में किसी सहायक या पदाधिकारी को कुछ घंटे या पूरा दिन या कई दिन का समय लग सकता है। सूचना जुटाने में जितने दिन लगें, उतने दिन का वेतन आवेदक से वसूलने की सलाह दी गयी है। किसी प्रशाखा पदाधिकारी का एक दिन का शुल्क 1080 रुपये बताया गया है।आदेश में कहा गया है कि यदि आवेदक सूचनाओं की सीडी लेना चाहता हो और कार्यालय में सूचना साफ्टकॉपी में उपलब्ध हो तो प्रति सीडी पचास रुपये की दर से सामान्यत: देय होगा। परंतु यदि सीडी तैयार करने में अधिक समय लगने की संभावना होगी, उस स्थिति में एक कंप्यूटर आपरेटर के एक दिन का वेतन 674 रुपये की दर से वसूलने की बात कही गयी है।
फेडरेशन ऑफ झारखंड चैंबर के सूचनाधिकार समिति के अध्यक्ष प्रभाकर अग्रवाल ने इसे हास्यास्पद आदेश करार दिया है। श्री अग्रवाल के अनुसार अगर कार्यालय में सूचना की साफ्टकॉपी उपलब्ध है तो सीडी बनने में महज दो-तीन मिनट का समय लगेगा। अगर कोई कंप्यूटर आपरेटर एक सीडी बनाने में पूरा दिन लगा दे तो ऐसे अयोग्य कर्मी का बोझ झारखंड की जनता क्यों वहन करे। श्री अग्रवाल ने यह भी जानना चाहा है कि क्या राज्य के सभी सरकारी कार्यालय में एक कंप्यूटर आपरेटर को 674 रुपये दैनिक मिलता है?
इसी तरह, झारखंड मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग के आदेश में कहा गया है कि यदि कोई सूचना का अवलोकन करना चाहे तो एक सहायक कर्मचारी के वेतन का भुगतान करना होगा। जबकि दस्तावेजों का निरीक्षण करने के लिए झारखंड में पहला घंटा निशुल्क तथा अगले हर आधे घंंटे के लिए पांच रुपये शुल्क का प्रावधान है।
दिलचस्प यह कि अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर ऐसा आदेश जारी करने तथा इसमें गंभीर गलतियां होने के बावजूद राज्य सरकार के आला अधिकारी इस पर खामोश हैं। झारखंड आरटीआइ फोरम के अध्यक्ष बलराम ने कहा है कि राज्य में पारदर्शिता की बात करने वाले नये राज्यपाल को तत्काल इस अवैध आदेश को निरस्त करने की घोषणा करनी चाहिए।

Saturday, September 5, 2009

Not so funny RTI innovations from Jharkhand


Story from The Hoot (www.thehoot.org)
Recent reports in Jharkhand suggest that information seekers are told to pay substantial sums in the name of the government staff’s salary. VISHNU RAJGADIA says the state has put its own money-making spin on the RTI Act.
Posted Saturday, Sep 05 12:21:19, 2009
Jharkhand is the state where two ex-ministers with corruption charges have been put behind the bars. It is the same state sin which the Governor House witnessed serious allegations during the President’ Rule. The same where the IAS officers who were very close to the governor are facing CBI raids.

And now the new Governor of Jharkhand Mr KS Narayan never forgets to add the terms like ‘transparency and accountability’ in each of his speeches. But the fact is that RTI Act (which ensures transparency and accountability) had been badly thrashed recently in the state.

The Jharkhand Cabinet (election) Department issued an order on 05.06.09. This order was sent to District Election officers and Deputy Commissioners. The order brought great pleasures to the officials. Without delay, the DC offices forwarded it to all the public information officers in their district. This started the consequences of demanding a large sum of money for providing information.

Wonder what was hidden in the order?

The order contained arbitrary explanations of the circular no. 1/4/2008-IR, dated 25.04.2008 of Ministry of Personnel, Public grievances and Pensions, Govt. of India. The letter provides guidelines to the public authorities. The circular also gives directions regarding suo-motu declaration or self-disclosure of information prescribed in sub section 4(1)(b) of the RTI act.
But the Jharkhand Cabinet (election) Department had comically described the letter. The order reads-
According to Section 4 of Right to Information Act, provision is made that all the government departments/office should maintain the record of important and relevant information related to their departments/office and put them in their office and on website; and shall make it available to Indian citizen in condition of duly filing the application with prescribed fees.
This statement is a false one. Section 4 makes the provision of self declaration of the information. Every department has to publish 17 categories of information related to its office and works. It should provide as much information suo-motu to the public at regular intervals through various means of communications, including internet, so that the public have minimum resort to the use of this Act to obtain information. The public authorities should do this with constant endeavour. Section 4 does not even mention about application and fee. It is clear that the order releasing authorities should first need to understand section 4.

The above mentioned circular of Ministry of Personnel, Public grievances and Pensions, Govt. of India guides about proper compliance of section 4, self declaration of information with constant endeavour, proper maintenance of documents and keeping the information in electronic form. The Jharkhand Cabinet (election) Department did not even mention these responsibilities. Apart from this, its order gives the tip to collect a huge sum of money for the time and expense undergone in case the desired information is not recorded or maintained in the office. Section 6 of RTI act is referred for this purpose. The order reads –

Under these circumstances, section 6 of Right to Information Act 2005 has made provision to assess the expenses in getting the information and to inform the applicant, so that if he bears the expenses he could be provided with the information.

It is interesting to note that section 6 had no provision mentioned as such. It only mentions about the filling of RTI application. It is Rs 10 in case of Jharkhand. Section 6 does not have clause of taking any further money. It’s clear that the officers aren’t informed about this section as well.
The order that has arbitrary descriptions of the Law has many clauses to dishearten the applicant. It is said that an officer or assistant could take hours or even days to gather information.

It had been suggested the applicant should pay the salary of the staff for whatever days it takes to gather the information. The rates are also mentioned. Including the wages and allowances, an assistant would cost Rs 940 per day, whereas a sub-division officer would cost Rs 1080. (Thank God the daily rate of bribe is not included).

If you became angry while going through the order, it is time to get your temper down. It is laughing time now. The order reads-

If the applicant wants to take the CD of the information, and the soft copy is available in the office; he will have to pay Rs 50 per CD. But if it takes long time to make the CD, then the tentative time will be calculated at the rate of Rs 674, the per day salary of the computer operator.

Now who will ask that if the soft copy is available in the office, then why it would take much time just for making a copy in CD? In fact instead of giving Rs 674 to that incompetent computer operator, people would prefer to throw him out of the office.

The Jharkhand Cabinet (election) Department order also says that if the applicant wants to inspect or go through the documents (under section 2(j)(i) of the act), he would have to pay as per the salary of the assistant staff. This direction is also illegal. The rules and regulations of central government say that no money could be taken for the first hour for inspection. The charge of Rs 5 would be taken for every extra hour. In Jharkhand, it is free for first hour, whereas Rs. 5 would be charged for every extra 30 minuts. In this case asking for assistant’s wages is quite comic.

It should be kept in mind that only the personnel and administrative departments of the Central and State governments have the right to formulate rules, fees and expenses related to RTI. Cabinet (election) has to follow the guidelines of the Law.

The Jharkhand Cabinet (election) Department had offended the law and proved its ignorance towards the RTI act. But the issue of transparency had to suffer as the public authorities had started making fool of the public. Even if this order is dismissed, it would take a long time to heal the wounds it had caused to transparency. The already corrupted information officers would try to use different methods to discourage the people from asking for information. On the other side, every applicant who becomes a victim of this order would surely lose his faith in the right to information law.

vranchi@gmail.com

केके सोन ने सूचना कानून में भरोसा जगाया

रांची: अधिकारियों द्वारा सूचना कानून की उपेक्षा के कारण राज्य के नागरिकों को कई बार निराश और परेशान होना पड़ता है। लेकिन रांची के उपायुक्त केके सोन ने रांची जिले में सूचना का अधिकार कानून को पूरी तरह से लागू कराने का भरोसा दिलाकर नयी उम्मीद पैदा की है। झारखंड आरटीआइ फोरम तथा सिटीजन क्लब ने 16 अगस्त को होटल चिनार में सेमिनार किया। इसमें श्री सोन ने कहा कि सूचना का कानून सामाजिक विकास के लिए काफी महत्वपूर्ण है. आप सूचना का अधिकार के जरिये तथ्य सामने लायें और अगर कहीं गलत है तो उसकी जानकारी मुझे दें. श्री सोन ने कहा कि ऐसे मामलों पर एक सप्ताह के भीतर कार्रवाई करना मेरी जिम्मेवारी है. आप मुझसे पूछ सकते हैं कि कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
ज्ञात हो कि वर्ष 2007 में जब श्री सोन ने रांची में उपायुक्त का दायित्व संभाला था, उस वक्त राज्य में सूचना कानून की घोर उपेक्षा हो रही थी। लेकिन श्री सोन ने पूरे उत्साह के साथ सूचना कानून को लागू कराकर एक नया माहौल पैदा किया था। श्री सोन द्वारा एक बार फिर रांची जिले में सूचना कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने का भरोसा दिलाया जाना स्वागतयोग्य कदम है। राज्य और जिलों के सभी प्रमुख अधिकारियों को खुलेतौर पर ऐसी ही घोषणा करनी चाहिये ताकि सूचना कानून का लाभ हर नागरिक को मिल सके। राज्य सूचना आयोग को भी इस दिशा में कठोर कदम उठाते हुए यह स्पष्ट संदेश देना चाहिये कि इस कानून का अनुपालन नहीं करने वाले अधिकारियों को बख्शा नहीं जायेगा। यहां प्रस्तुत है रांची के उपायुक्त केके सोन के वक्तव्य के मुख्य अंश- ”पारदर्शिता काफी महत्वपूर्ण है। यह सार्वजनिक जीवन और व्यक्तिगत जीवन दोनों के लिए जरूरी है। सूचना का अधिकार कानून इसी पारदर्शिता के लिए बना कानून है। इसलिए मैं भरोसा दिलाता हूं कि मैं अपने अधीन सभी विभागों में सूचना कानून का पूरी तरह से पालन किया जायेगा। इसमें मौजूद कमियों को एक महीने के भीतर ठीक कर दिया जायेगा। इस कानून के जरिये आप अच्छे काम कर सकते हैं और गलत काम को रोक सकते हैं। अगर एक नागरिक कोई सूचना मांगता है, तो अधिकारियों को कोई भी गलत काम करने से पहले कई बार सोचना पड़ता है कि कहीं उससे चूक तो नहीं हो रही। पिछले तीन साल का अनुभव काफी मिला-जुला है। समाज के जिन कमजोर लोगों के लिए इस कानून का उपयोग होना चाहिए था, वह बेहद कम हो पाया है। आज सुबह मैं एक गांव में गया था। देखा कि वहां आज भी स्वच्छ पेयजल नहीं है। लोग गड्डे का पानी पी रहे हैं। क्या सूचना का कानून वहां के ग्रामीणों को पानी दिलाने में कोई मदद कर सकता है? आज कुछ ही संगठन सूचनाधिकार पर काम कर रहे हैं। मुझे लगता है कि सामाजिक संगठनों को अपने संसाधनों की मैपिंग करनी चाहिए। क्या हमारे पास ऐसी व्यवस्था है, जिसके तहत हर गांव के संबंध में सूचना हासिल कर सकें? रांची जिले में 298 पंचायतें हैं। क्या हम 298 व्यक्तियों या संगठनों का चयन करके एक-एक पंचायत के बारे में सूचना मांगने और वहां से जुड़े मुद्दे उठाने का जिम्मा दे सकते हैं? अगर हम सिर्फ पानी की बात करें, तो पता चलेगा कि उनमे से 200 पंचायतों में पीने का पानी तक नहीं है। हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी यह स्थिति है। हम ऐसी सूचनाओं के जरिये विकास कार्यों में मदद कर सकते हैं। मैं गांवों में जाता हूं तो देखता हूं कि लोगों को नरेगा के बारे में पता नहीं। उन्हें नहीं मालूम कि जाॅब कार्ड क्या है। नरेगा के साढ़े तीन साल बाद यह हाल है। इसलिए हमें बहुत काम करने की जरूरत है। सिविल सोसाइटी जब तक पहल नहीं करेगी, तब तक विकास अधूरा रहेगा। हमें व्यवस्था बनानी है, मसीहा नहीं बनना। किन जगहों पर मजदूरों को समय पर पूरी मजदूरी नहीं मिल रही, इसकी सूचना मुझे मिले, तो एक उपायुक्त के बतौर मैं इस सूचना का उपयोग करूंगा। अगर आप मुझे ऐसी कोई सूचना देते हैं, तो उस पर एक सप्ताह के भीतर कार्रवाई होगी। नहीं हुई, तो जिम्मेवारी मेरी है। आप मुझसे पूछें कि कार्रवाई क्यों नहीं हुई? इससे पहले भी मैंने रांची उपायुक्त का पद संभाला था। मैंने सभी अधिकारियों से कहा कि सूचना तो देनी होगी। हमारे यहां सूचना के जो भी आवेदन आते हैं, मैं संबंधित अधिकारियों को बुलाकर पूछता हूं कि उन्होंने मांगी गयी सूचना दी अथवा नहीं। आज संचार के अनगिनत साधन मौजूद हैं। टेलीफोन के अलावा मोबाइल और एसएमएस है, ईमेल है, इन सबका उपयोग हमें करना चाहिए। मैंने अपने सभी अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे ईमेल पर सूचना ग्रहण करें और उसका जवाब भी दंे। विकास कार्यों का सामाजिक अंकेक्षण जरूरी है। हमें यह देखना होगा कि आखिर लोग हमारी बात कब मानेंगे और कब हम पर भरोसा करेंगे। अगर हम अपनी जगह ठीक हों, तभी लोग हमारी बात मानेंगे। हमने नरेगा के राज्य स्तरीय सामाजिक अंकेक्षण के लिए जो टीम बनायी, उसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ सरकारी अधिकारियों को भी रखा। ऐसी टीमें अपनी रिपोर्ट दे रहीं हैं। इनमें सरकारी अधिकारी खुद बता रहें हैं कि कहां-कहां गड़बड़ी हुई। इस तरह जब हम कोई गलती महसूस करेंगे, तभी उसे सुधार सकेंगे। आज विभिन्न योजनाओं में सड़क बन रही है। लेकिन आपको पता नहीं कि कब बनी, किस योजना में बनी, और कितने पैसे लगे। हम अपनी वेबसाइट पर वैसी सरकारी सूचनाएं दे देंगे। नरेगा के तहत रांची में कितनी योजनाएं हैं, उन पर कितना खर्च हुआ। इसकी पूरी सूचना हम वेबसाइट पर दे देंगे। अधिकारियों को यह मालूम होगा कि सारी सूचनाएं हर नागरिक के पास मौजूद है, तो वे गलत करने से डरेंगे। अगर आपको सूचना पाने में कोई भी बाधा पाने में कोई भी बाधा होती हो, तो मैं आपकी मदद के लिए हमेशा तैयार हूं। मैं फिर से कहना चाहूंगा कि पारदर्शिता होनी चाहिए और मैं इस बात को पूरे विश्वास के साथ दोहराता हूं। यह भी कहना चाहता हूं कि सामाजिक अंकेक्षण से ही असली पारदर्शिता आयेगी। अगर गांव के लोग एक जगह बैठ कर इन चीजों पर विचार करना शुरू कर दें, तो काफी बड़ा बदलाव आ सकता है।” (सूचनाधिकार और सामाजिक निगरानी पर सेमिनार, 16 अगस्त, होटल चिनार, रांची में रांची के उपायुक्त केके सोन के वक्तव्य के मुख्य अंश)
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सेमिनार की अध्यक्षता झारखंड के पूर्व महाधिवक्ता श्री एसबी गाड़ोदिया ने की। रांची नगर निगम के डिप्टी मेयर अजयनाथ शाहदेव विशिष्ट अतिथि थे। संचालन विष्णु राजगढ़िया ने किया। मंच पर श्री बलराम और प्रो रमेश शरण उपस्थित थे। सेमिनार में उपस्थित लोगों में एके गुप्ता, डाक्टर सुरंजन, सुधीर पाल, एनएन मंगला, ललित बाजला, नरेंद्र नवेटिया, बिंदुभूषण दुबे, अजय मुरारका, डाक्टर सत्यप्रकाश मिश्र, बशीर अहमद, प्रभाकर अग्रवाल, एके सिंह, निखिलेश, संजय केडिया, नीरज गर्ग, सुनील महतो, आनंद, कमलाकांत तिवारी, स्निग्धा अग्रवाल, अशोक कुमार, रूपा अग्रवाल, अनुसइया नवेटिया, अशर्फी प्रसाद, सुरेंद्र ठाकुर, मयंक गिरि, वीके मंडल, लक्ष्मीचंद्र दीक्षित, बलराम सिंह, अशोक पारिख, दशरथ वर्मा, मंडल कच्छप, अरविंद, कुंदन कुमार, मोहम्मद फिरोज, प्रो बीके सिन्हा, अरुणचंद गुप्ता, रूपेश कुमार, संदीप आनंद, दयानंद, ओमप्रकाश पाठक, विक्रम खेतान, विकास जालान, प्रवीण मोदी, शक्ति पांडेय, नीलमणि, सुशील, विवेक, अमित झा, सुशील अग्रवाल आदि शामिल थे। सेमिनार के आयोजन में राजेश कसेरा, दीपक लोहिया, आरएन सिंह, संजीव कुमार, कमल कुमार अग्रवाल, दामोदर अग्रवाल, वरूण भाटिया, विपुल जैन, आनंद जोशी इत्यादि की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

हर नागरिक कर सकता है बड़े बदलाव : एके सिंह

विकास का माडल क्या हो तथा सरकारी राशि का आवंटन कैसे हो, इसे हम आज यहां बैठ कर तय नहीं कर सकते। लेकिन हमें यह सोचना है कि एक नागरिक के बतौर कुछ कर सकते हैं या नहीं। मैं उन्हीं बिंदुओं पर बात करना चाहूंगा, जिस पर एक नागरिक पहल से कोई बड़ी भूमिका निभा सकता है।

मैं दो उदाहरण देना चाहूंगा, जिसमें एक नागरिक की पहल ने महत्वपूर्ण बदलाव को अंजाम दिया। 1992 में मैं बिहार में जेल आइजी था। जेलों में बीमार लोगों के भोजन के नाम पर घपले की चर्चा होती रहती है। एक नागरिक ने मुझे बताया कि मुजपफ्पुर जेल में हारलिक्स के नाम पर डेढ़ लाख रुपया निकाला गया। मैं दूसरे ही दिन उस जेल में गया। पता चला कि एक भी बोतल की खरीद नहीं हुई थी।

इसी तरह जब मैं गन्ना विकास सचिव था, तो मुझे एक नागरिक ने महत्वपूर्ण सूचना दी। हर किसान अपने गन्ने की आपूर्ति जल्द करना चाहता है कि ताकि वह अपने खेत में दूसरा फसल लगा सके। उसके लिए हर आपूर्तिकर्ता को पर्ची जारी होती थी। ऐसी पर्चियां वास्तविक किसानों को कम तथा पुलिस प्रशासन को कुछ अधिकारियों को ज्यादा मिलती थी। इन पर्चियों को भारी कीमत लेकर बेच दिया जाता था। मुझे जब एक नागरिक ने इसकी सूचना दी, तो मैंने आदेश दिया कि जिसके नाम पर पर्ची होगी, उसी नाम पर चेक का भुगतान होगा। इस एक बदलाव से पूरा पर्ची सिस्टम फेल हो गया।

इसलिए मैं कहता हूं कि व्यवस्था की कमियों को लेकर सिर धुनने और कुंठित होने से बेहतर है कि आप क्या कर सकते हैं, सरकार की नीतियों और योजनाओं को समझें, बजट को समझने की कोशिश करें, तो आप महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इंग्लैंड में विपक्ष अपना एक छाया मंत्रिमंडल बनाता है। हर सांसद को किसी एक विभाग पर नजर रखने का काम मिलता है। कोई जागरूक नागरिक किसी एक विभाग के बारे में अपनी समझ बनाना शुरू करे, तो सकारात्मक पहल कर सकता है।
इसके लिए सूचनाधिकार एक बड़ा हथियार है। अगर आप किसी योजना को समझ लें तो उसकी सूचना हासिल करके उसके सही क्रियान्वयन में मदद कर सकते हैं। आप इस ओर इंगित कर सकते हैं कि आपकी योजना कुछ है और आप कुछ और कर रहे हैं। बजट में खर्च कितना हुआ। यह जानने से ज्यादा जरूरी यह है कि उसका नतीजा क्या निकला, आपको इस आउटकम पर विचार करना चाहिए। यह काम कोई सूचना संपन्न नागरिक ही कर सकता है। जागरूक किसानों का एक समूह ऐसे विषयों पर अध्ययन करें, और एक नागरिक एक विषय पर काम करें, तो वह बड़े बदलाव को अंजाम दे सकता है। गांव में क्या समस्याएं है और विकास की क्या जरूरते हैं, इसे भी तय करने में आप भूमिका निभा सकते हैं। सूचनाएं लेकर आप एडवोकेसी कर सकते हैं।

लोकतंत्र में जनमत का काफी महत्व होता है। अगर कोई निर्माणाधीन पुल बह गया] तो आपको यह देखना चाहिए कि इस पर क्या कार्रवाई हुई। अगर किसी का निलंबन हुआ, तो उसे किस प्रक्रिया में वापस लिया गया। उस पर क्या कार्रवाई हुईं। जवाबदेही तय हुई कि नहीं। नागरिक अगर वाचडाग की तरह काम करके सकरात्मक नजरिये से आगे बढ़े तो बड़े परिवर्तन ला सकता है। हाल ही में आप राज्य और देश में ऐसे अनगिनत उदाहरण देख सकते हैं, जिनमें एक नागरिक ने प्रशासन को सकारात्मक कदम उठाने के लिए बाध्य किया हो। चाहे जितना भी भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता हो, नागरिकों की ऐसी पहल के साथ अंतरद्वंद होने पर ही समाज आगे बढ़ता है। दिनकर ने लिखा था-
रजनी हो दीर्घायु भले वह अमर नहीं है।
अरुण बिंदुधारिणी उषा आती ही होगी।

(होटल चिनार, रांची में 23 अगस्त 2009 को सिटीजन्स एजेंडा पर सेमिनार में एटीआइ के महानिदेशक श्री अशोक कुमार सिंह के वक्तव्य के मुख्य अंश)
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कार्यक्रम की अध्यक्षता चाइल्ड इन नीड इंस्टीट्यूट के झारखंड समन्वयक डा सुरंजन ने की। सुप्रीम कोर्ट कमिश्नर के सलाहकार बलराम और झारखंड आरटीआइ फोरम के सचिव विष्णु राजगढ़िया ने संचालन किया। सेमिनार को पीएन सिंह, गुरजीत, डा दिनेश, आनंद, अंचल किंगर, जयशंकर चैधरी, सुधीर पाल, सीताराम मोदी, प्रभाकर अग्रवाल, किरण, हलधर, रमाकांत, अनिल चैधरी, अलिशा, अवनीश इत्यादि ने भी संबोधित किया। सेमिनार के आयोजन में राजेश कसेरा, दीपक लोहिया, आरएन सिंह, संजीव कुमार, कमल कुमार अग्रवाल, दामोदर अग्रवाल, वरूण भाटिया, विपुल जैन, आनंद जोशी इत्यादि की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

सूचना, अधिकार और कलम

विष्णु राजगढ़िया
सूचना का अधिकार भारतीय नागरिकों के लिए आजादी का एक नया स्वाद लेकर आया है। इसने पारदर्शिता का ऐसा माहौल बनाया है, जिसमें नौकरशाही के लिए पहले जैसी मनमानी की कोई जगह नहीं रहीं. अब शासन-प्रशासन में बैठे लोगों को यह भय सताने लगा है कि कोई भी नागरिक महज दस रुपये के साथ एक आवेदन डालकर किसी भी मामले की पूरी फाइल निकाल लेगाण् इस अधिकार ने कई मामलों में नागरिकों की बेचारगी को खत्म कर दिया है, जबकि कई मामलों में शासन-प्रशासन को बेचारा बना दिया हैण् देश भर में ऐसे लाखों मामले सामने आ चुके हैं, जो बताते हैं कि 1947 के बाद किस तरह भारतीय नागरिकों को पहली बार सच्ची आजादी का एहसास हुआ हैण् यह अधिकार मीडिया के लिए भी कारगर हथियार बनकर सामने आया हैण् अब तक हमारे देश में नौकरशाही ने शासकीय गोपनीयता कानून (ऑफिशियल सिक्रेट एक्ट, 1923) को हौव्वा बना रखा थाण् अंग्रेजों के बनाने इस कानून में सरकारी गोपनीयता की कोई परिभाषा नहीं हैण् इस कानून के अनुसार हाकिम किसी भी सूचना को गोपनीय बताकर छुपा सकता हैण् उस काले कानून ने अधिकारियों को इतनी ताकत दे रखी थी कि किसी भी सूचना को गोपनीय बताकर उसे उजागर करने के आरोप में मीडियाकरमी मके खिलाफ अभियोग चलाया जा सकता थाण् लेकिन सूचना का अधिकार ने उस कानून को भोथरा करते हुए पारदर्शिता की गारंटी कर दीण् सूचना का अधिकार कानून की धारा 22 के माèयम से शासकीय गुप्त बात अधिनियम के प्रावधानों को शिथिल कर दिया गया हैण्इस कानून ने यह संभव कर दिया है कि मीडिया किसी भी मामले से जुड़े दस्तावेजों की पूरी फाइलों का अèययन करके तथ्यपरक रिपोर्ट लिखेण् देश के कई प्रमुख प्रकाशन संस्थानों ने सूचना का अधिकार का उपयोग करके एक्सक्लूसिव खबरें निकालने के अनूठे प्रयोग किये हैंण् इस लेखक के पास ऐसे दर्जनों अनुभव हैं जिनमें सूचना के अधिकार ने काफी मदद पहुंचायी हैण् एक उदाहरण धनबाद के अल-एकरा बीएड कॉलेज का देखा जा सकता हैण् वर्ष 2006-07 में इसमें नामांकन की मेधा सूचि को सार्वजनिक नहीं किया गयाण् यहां तक कि मीडिया को भी मेधा सूचि उपलब्ध नहीं करायी गयीण् इसी बीच एक नागरिक ने जिला शिक्षा अधिकारी के पास सूचना का आवेदन देकर पूरी मेधा सूचि हासिल कर लीण् पता चला कि कई उम्मीदवारों को मेधा सूचि में नाम होने के बावजूद गुमराह करके नामांकन से वंचित कर दिया गया थाण् मीडिया के लिए ऐसी सूचनाएं एक्सक्लूसिव खबर बनींण् दिलचस्प बात यह कि अगले सत्र में कॉलेज प्रबंèान ने मीडिया को मेधा सूचि खुद ही उपलब्èा करा दीण् इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जहां मीडिया के लिए यह कानून कितना कारगर है, वहीं गोपनीयता के खत्म होने से नामांकन के उम्मीदवारों को कितनी राहत मिली होगीण् सच तो यह है कि अब तक कि पत्रकारिता में अधिकार पूर्वक दस्तावेजों के अध्ययन की गुंजाइश नहीं होने के कारण मीडियाकमीZ काफी सहमे और उपकृत रहा करते थेण् उन्हें समाचार पाने के लिए नेताओं और अधिकारियों से मधुर संबंèा बनाने होते थेण् इसके लिए वह जाने या अनजाने में इस या उस पक्ष का उपकृत बनता थाण् मधुर रिश्तों के आधार पर खबरें निकालना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन इसकी सीमा यह है कि कई बार संवाददाता को खबर देनेवाले ऐसे स्रोतों के हाथ की कठपुतली बनने को विवश होना पड़ता हैण् ऐसे में कई बार उसकी रिपोर्टिंग महज किसी के जनसंपर्क का उपकरण बनकर रह जाती हैण् जब तक संवाददाता ऐसे अधिकारियों के अनुकूल खबर लिखता है, तब तक उसे खबरें मिलेंगीण् लेकिन ज्योंहि वह किसी कटु सच्चाई को सामने लाने की ओर बढ़ेगा, ऐसे अधिकारी उससे मुंह मोड़ लेंगेण् लेकिन सूचना का अधिकार इस सीमा को तोड़ता हैण् अब पत्रकारों के लिए यह संभव है कि वह सामान्य किस्म की खबरें सामान्य तरीकों और मधुर रिश्तों के आधार पर निकाल लाये और विशेष खोजी खबरों तथा कड़वी सच्चाइयों को सामने लाने के लिए सूचना के अधिकार का उपयोग करेण्समाचार की एक चर्चित परिभाषा है- जिसे कोई छुपाना चाहे, वह समाचार है, शेष सब विज्ञापनण् इस परिभाषा का मतलब के अधिकार ने स्पष्ट कर दिया हैण् अब तक मधुर रिश्तों के आधार पर संवाददाता को अधिकारियों से जो खबरें मिलती रही हैं, वे महज विज्ञापन या जनसंपर्क की श्रेणी में आती हैंण् ऐसे अधिकारी कुछ खबरें देते समय कुछ खबरें छुपा भी रहे होते हैंण् असल खबर वह है, जो छुपा ली गयी हैण् वैसी खबरों को सूचना के अधिकार के माèयम से सामने लाने वाला पत्रकार निश्चय ही ऐसे अधिकारीयों का कृपापात्र कभी नहीं बन पायेगाण् लेकिन जनता ऐसे पत्रकारों की कलम चूम लेगी, यह भी तय हैं (आइ-नेक्स्ट 21 जुलाई 2008 में प्रकािशत)

Glasnost glare on gifts galore

SUMAN K. SHRIVASTAVA
The Telegraph, August 11, 2006
Ranchi, Aug. 10: What is secret about gifts distributed by departments to MLAs and journalists during different sessions of the Assembly? An appeal has been filed before the State Information Commission, one of the four appeals filed so far, challenging the Assembly’s decision to deny the information sought by the petitioner.
The petitioner, Shakti Pandey, had sought details of gifts and the cost incurred on them by different departments. Departments have traditionally been distributing gifts to MLAs and reporters covering the Assembly for decades. But this is the first time information had been sought about the gifts and the cost under the Right to Information Act.
The Assembly secretariat, however, refused to divulge the details. Nor did it oblige Pandey when he sought to find out the procedures adopted by the Assembly while allotting shops on the Assembly premises and funds generated through such allotment.
Pandey has now appealed to the SIC and a member of the commission confirmed that a notice would be issued to the Assembly secretary, as the commission has found the grounds cited by the Assembly to withhold information unacceptable. The outcome will go a long way in setting a benchmark in ensuring transparency, the member hoped.
Another appeal has been filed by a journalist, Vishnu Rajgarhia, denied information by the law department on a case transferring 140 acres of land in Deoghar and two houses in Calcutta belonging to Manorama Trust to a family. In this case also, the commission, after a meeting, decided to serve a notice to the law department. Ironically, the then law secretary, Ram Bilas Gupta, who had denied the information to Rajgarhia, happens to be one of the members of the Information Commission.
Rajgarhia claims that one Shibmoy Banerjee had gifted his property in the 60s in the name of his family deity. His three sons, however, contested the case in Calcutta High Court, which ordered the state government to appoint an arbitrator to decide the issue. Chairman of the Religious Trust Board, Rajgarhia alleged, designated himself as the arbitrator and pronounced the judgement in favour of the sons.
The chairman, Lal Rajendranath Shahdeo, however, rubbished the charges and claimed that the plot was transferred in view of an order passed by Calcutta High Court.
In yet another appeal, an engineer posted in the water resources department, Arun Kumar, has sought to know the procedures followed in transferring him to the urban development department and the latter’s subsequent refusal to accept him on the ground that no suitable post was available. Kumar had challenged his transfer in the high court but his petition was dismissed after an affidavit was filed by the state government. The engineer has now exercised the Right to Information Act to find out if the statements made in the affidavit are genuine.

Country liquor loses revenue fizz

SUMAN K. SHRIVASTAVA
The Telegraph, Saturday, May 12, 2007
(Based on the RTI book by Rajkamal)
Ranchi, May 11: Revenue from country-liquor has gone down by 90 per cent in the state, indicating a huge loss of appetite for the elixir of life. It might, however, be due to a huge appetite for money among officials, asserts the following story.
“Is it true that the state has suffered huge loss of excise revenue from sale of country liquor in the state?” The seemingly innocuous question was asked by an MLA in the Assembly. And the reply was equally innocuous. “No such complaint has been received from any quarter,” the government informed the House.
There the matter rested till a trainee journalist with a newspaper applied for information under the Right to Information (RTI) Act.
The official information, released reluctantly, indicated that the state earned around Rs 16 crore as excise tax from the sale of country liquor in the state during 2001-02. But at the end of March 2006, the annual revenue had come down to Rs 1.65 crore.
A year after the NDA government’s reply in the Assembly, the House was again rocked by the issue, with Congress leader Pradeep Balmuchu accusing an unholy nexus between government officials and liquor barons for the huge loss to the exchequer.
Balmuchu had accused the excise minister of misleading the House, prompting chief minister Madhu Koda to intervene and promise modifications in the excise policy.
The state government, Balmuchu had said, dropped the traditional policy and handed over the licence to a syndicate of traders from Chhattisgarh and New Delhi. It created a monopoly of outsiders, which drove out the local traders, the Congress leader had alleged.
The chief minister is yet to fulfil his promise, Balmuchu said here today.
This and many other information tumbled out of the government’s closet because of the application of the RTI Act and they have been compiled in a book by Arvind Kejriwal and Vishnu Rajgarhia.
Strangely, even PSUs have been revealed to be as scheming and as corrupt as the state government.
Ranchi-based businessman Sandeep Anand thanks the RTI Act for enabling him to recover Rs 9 lakh for the sprinkler system he had supplied to the Central Coalfields Ltd.
CCL had held back the payment complaining the system had malfunctioned. The businessman made use of the RTI Act to get access to documents and was shocked at the finding. Documents revealed that CCL had informed Coal India Ltd as well as the World Bank that the sprinkler system was working well.
Based on the documents, Anand won his case and recovered his dues.
What is more, Anand also stumbled upon the fact that a section of CCL officials had planned to lodge a fake FIR against him, holding him responsible for a file missing from the CCL office. He promptly served a defamation notice on the CCL, which, predictably, the PSU ignored.
The RTI Act has also come in handy to expose other irregularities in the system.
The state government, for example, bungled by registering as many as 160 NGOs without recording their permanent addresses, as required under the law.
Possibly fresh applications under RTI Act need to be filed to find out the action, if any, taken by the government and the CCL against the culprits.

Annual South Asia Media Summit 2008 held in Goa

“Globalisation / Commercialisation of Media in South Asia: Time for a Reality Check” Annual South Asia Media Summit – 2008 organised by the Media Information and Communication Centre of India (MICCI) and Friedrich Ebert Stiftung (FES-India) in collaboration with the International Centre Goa (ICG) concluded on 23th of Nov. 2008 at the Taj Holiday Village. The Summit was inaugurated by Hon. Mr. Pratapsingh Rane – President, ICG and Speaker, Goa Legislative Assembly on 21st of Nov. 2008. Renowned media person Gerson da Cunha, Mumbai delivered the Keynote Address to the Summit. Mr. Pratapsingh Rane also released the book Media and Public Interest in South Asia: Some Priority Areas on the occasion Ms. Nandini Sahai, Director, MICCI and Mr. Rajeshwar Dyal, Senior Media Advisor, FES-India spoke at the inaugural session. Mr. Collin Curry, Trustee, MICCI welcomed the participants while Mr. Arjun Halarnkar, Programme Manager, ICG proposed the vote of thanks.. Detail of the sessions : Session- I- Concentration of Media Industry/ Dominance of Capital in some sectors Session – II- Globalisation / Commercialisation of Media Industry and Possible Threat to Cultural Diversity Session III - Effect of Globalisation / Commercialisation on Public Broadcasting Session IV – Globalised Media and Terrorism: Impact of New Technologies Session V – Globalisation/ Commercialisation of Media and its Social Responsibility Recommendations and Future Course of Action: An Open Forum The deliberations of the Summit concluded in the form of a recommendation document which will be released soon. Participants : Mr. Rajeshwar Dyal, Ms. Nandini Sahai, Mr. Ajit Bhattacharjea, Mr. Vinod Dua, Mr. Sonny Abraham, Mr. Gerson da Cunha, Mr. Siddharth Varadarajan, Mr. Ishwar Bhat, Mr. Sidharth Bhatia, Ms. Swati Desphande, Ms. Nidhi Razdan, Mr. Aniruddha Bahal, Mr. Shastri Ramachandaran, Ms. Shai Venkatraman, Mr. Jamshed K. Mistry, Mr. Gouridasan Nair, Ms. Mausumi Bhattacharyya, Ms. Vinita Deshmukh, Ms. Alka Sapru Joshi, Mr. Vishnu Rajgadia, Mr. Zafar Sobhan, Mr. Naeem Mohaiemen, Mr. Prateek Pradhan, Mr. Narayan Wagle, Mr. Prem Khanal, Ms. Rehana Hakim, Mr. Rahimullah Yusufzai, Mr. Sinha Ratnatunga, Ms. Manjula Fernando, Mr. Ranga Kalansooriya, Ms.Mariyam Suhana, Ms. Siok Sian Pek Dorji, Ms. Aditi Phadnis Mehta, Mr. Agha Nasir. The details of the programmes are available on http://www.micci.in/ and http://www.goadialogues.com/.