Thursday, November 26, 2009

बिहार में सूचनाधिकार: अभी दिल्ली दूर है....

अफ़रोज़ आलम साहिल

बिहार के सुशासन बाबू नीतीश कुमार ने 29 जनवरी 2007 को बिहार में सूचना अधिकार के नाम पर एक क्रांति का सूत्रपात किया था. सुशासन बाबू ने फोन के जरिए सूचना देने का क्रांतिकारी प्रयोग किया था. इस लिहाज से प्राइसवाटर हाउस कूपर्स से लेकर सोनिया गांधी तक सभी ने सुशासन बाबू की इस पहल की जमकर तारीफ की थी और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे बिहार को सूचना अधिकार का रोल मॉडल घोषित कर दिया था. लेकिन क्या सूचना अधिकार का यह रोल मॉडल काम कर रहा है?
देश में बढ़ते भ्रष्टाचार व अपारदर्शिता से निपटने हेतु लागू किए गए ‘सूचना के अधिकार’ को नाफिज़ हुए चार वर्ष मुकम्मल हो चुके हैं। और ये सच है कि जब भी ‘सूचना के अधिकार' का ज़िक्र होगा तो बिहार राज्य का नाम ज़रुर आएगा, क्योंकि बिहार इस मामले में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि नीतिश जी के लफ़्ज़ों में पूरे विश्व का ‘मॉडल स्टेट' है। हमारे देश में बिहार ही एक ऐसा राज्य जहां फोन के माध्यम से ‘सूचना के अधिकार' का आवेदन किसी भी विभाग में डाल सकते हैं। इसके लिए यहां 29 जनवरी 2007 से ‘जानकारी' नामक एक कॉल सेंटर स्थापित है। इस कॉल सेंटर की मीडिया व सिविल सोसाईटी की जानिब से खूब प्रशंसा की गई। यहां तक कि इसके लिए बिहार सरकार को कई पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया। यही नहीं, मशहूर कंसल्टेंसी एजेंसी प्राइसवाटर हाउसकूपर्स के साथ-साथ सोनिया गांधी भी इसकी मुरीद हैं। कार्मिक मंत्रालय तो इससे इतना प्रभावित है कि इस तरह का कॉल सेंटर पूरे देश भर में शुरु करने का मन बना रही है। पर अफसोस पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और ही है।

इस ‘मॉडल स्टेट' में इस अधिकार की जो दयनीय हालत है, शायद उसे लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता। बिहार के दूसरे विभागों से सूचना दिलवाने वाली ये ‘कॉल सेंटर' खुद बीमार है। शुरु के एक-डेढ़ साल तो हमें ‘ये नंबर सेवा में नहीं है' या फिर ‘डायल किया गया कृपया जांच लें' की सदा सुनाई देती रही और अब रिंग होता रहे और कोई फोन रिसीव न करे या फिर फोन उठाकर आपका फोन काट दे तो इसमें ज़्यादा हैरान होने की ज़रुरत नहीं है, और अगर आपका आवेदन दर्ज कर लिया जाए तो इस स्थिती में आप सूचना मिलने की ज़्यादा उम्मीद मत रखिएगा। हो सकता है कि फोन से दस रुपये बतौर फीस कटने के बाद भी कुछ विभाग आपसे फीस की मांग करें, या सूचना पूछने के जुर्म में जेल की हवा खानी पड़े, या फिर हो सकता है कि एक साल के बाद आपको सूचना मिले वो भी आधी।अधूरी। और अगर आपने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की ठान ली है तो फिर आप लोगों के लिए स्वयं एक हास्यापद सूचना हैं।

हालत तो यह है कि सूचना उपलब्ध करवाने वाला ‘कॉल सेंटर' और ‘राज्य सूचना आयोग' खुद अपनी सूचना देना मुनासिब नहीं समझते। ऐसे में बाकी विभागों का क्या रवैया होगाए इसका अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं। हालांकि नीतिश सरकार ने इस अधिकार के प्रचार व प्रसार में काफी पैसे बहाये हैं। सूचना के अधिकार के तहत काफी मेहनत व मुशक्कत के बाद 18 नवंबर 2008 को मिली सूचना के अनुसार इस अधिकार के व्यापक प्रचार।प्रसार हेतु सूचना एवं जन सम्पर्क विभागए बिहार द्वारा मेघदूत पोस्टकार्ड योजना के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1।25 लाख पोस्टकार्ड का मुद्रण किया गयाए जिस पर कुल लागत 2.50 लाख रुपये है। पोस्टर मुद्रण पर 22,500. (बाइस हज़ार पांच सौ) रुपये तथा फ्लैक्स संस्थापन के कार्य पर 52,763 (बावन हज़ार सात सौ तिरसठ) रुपये खर्च किया गया। इसके अतिरिक्त प्रखंडों के आधार पर इसके प्रचारार्थ होर्डिंगए फ्लैक्स एंव पम्पलेट निर्माण हेतु कुल 21,48,000(इक्कीस लाख अड़तालीस हज़ार) रुपये खर्च किया गया है। केन्द्रीय प्रायोजित योजना के तहत भी राज्य को कार्यशाला एंव सेमिनार के माध्यम से प्रचार.प्रसार हेतु 50,000 (पचास हज़ार) रुपये ज़िलाधिकारी पटना को मिला।
सूचना के अधिकार के तहत मिली एक अन्य सूचना के अनुसार बिहार स्टेट इलेक्ट्रॉनिक डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के ज़रिए आउटसोर्सिंग व्यवस्था से चलने वाली छह सीटर कॉल सेंटर को कार्मिक व प्रशासनिक सुधार विभाग, बिहार से दिनांक 25 सितम्बर 2007 को 33,26,000/- (तैतीस लाख छब्बीस हज़ार) रुपये प्राप्त हुए जबकि इसने खर्च किया 34,40,586/- (चौतीस लाख चालीस हज़ार पांच सौ छियासी) रुपये।

वहीं बिहार राज्य सूचना आयोग में वर्ष 2008-09 तक 2,75,43,072/- (दो करोड़ पचहत्तर लाख तिरालीस हज़ार बहत्तर) रुपये की राशि खर्च की गई। पर अफसोस! इतने खर्च के बावजूद ये राज्य सूचना आयोग दो ही आयुक्तों के सहारे चल रहा है, जबकि एक मुख्य सूचना आयुक्त सहित 10 आयुक्त यहां होने चाहिए। दिलचस्प बात तो यह है कि यहां मुख्य सूचना आयुक्त का पद ही खाली है, क्योंकि अक्टूबर 2008 में मुख्य सूचना आयुक्त न्यायमूर्ति शशांक कुमार सिंह सेवानिवृत हो गए और राज्य सरकार ने पटना हाईकोर्ट के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश जे।एन.भट्ट को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया लेकिन श्री भट्ट ने आज तक मुख्य सूचना आयुक्त का पदभार ग्रहण नहीं किया। यही कारण है कि जून 2009 तक के रिपोर्ट के मुताबिक 9106 वादों की सुनवाई आयोग के समक्ष प्रक्रियाधीन है, क्योंकि सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार अक्टूबर 2006 से जून 2009 तक आयोग में कुल 20572 वाद दर्ज गए, जिनमें से 11466 वादों का निष्पादन कर दिया गया है। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि हर आवेदक के द्वितीय अपील के बाद जुर्माना लगाने की बात करने वाली ये आयोग अब तक 23 जन सूचना अधिकारियों पर ही जुर्माना लगा सकी है, जिससे आयोग को मात्र 3,16,750/- (तीन लाख सोलह हज़ार सात सौ पचास) रुपये की आमदनी हुई है। अब आप स्वयं सोचिए कि ऐसे में कोई सूचना अधिकारी किसी को सूचना क्यों दे…? और जब मॉडल स्टेट की हालत ये है तो बाकी राज्यों में इस अधिकार के हश्र का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं।

लालू के लालटेन युग के बाद बिहार की जनता में यह उम्मीद जगी थी कि शायद अब भ्रष्टाचार पर लगाम लग जाएगी, लेकिन सुशासन के दौर में भी भ्रष्टाचार बेलगाम बढ़ता ही जा रहा है। खैर, बिहार सुधर सकता है, गरीबी का पहाड़ समतल हो सकता है, पर शर्त है कि पुराना ढब बदला जाए, पर यहां के सरकारी अधिकारी ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे।
अफ़रोज़ आलम साहिल
Posted by “लीक से हट कर”

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